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प्राणवाची शब्द हैं। इसी प्रकार समुद्र अव अह रात्रि, संवत्सर भो प्राणवाचक शब्द है । अह प्राका नाम है और रात्रि अपानका नाम है। समुद्र मनको कहते हैं। ओर बाक् (बारी) को संवत्सर कहते हैं। इस प्रकार यहां प्राणका कथन है न तो यहां प्रलयका कथन है और न सृष्टि उत्पत्तिका
अतः इन मन्त्रोंका अर्थ हुआ। भाव और द्रव्य क्रिया (योग) सत और सत्य सूक्ष्म और स्थूल प्राण उत्पन्न होते हैं। उनसे रात्रि, तम, अज्ञान उत्पन्न होता है | उन्हीं प्राणोंसे समुद्र मन बाकू सूरुष वाणी उत्पन्न होती हैं, समुद्रात् उस सूक्ष्म वाणी से (क) स्थूल बाकू उत्पन्न होती है। और उससे स्थूल इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं। प्राण और अपानको इस (विश्वस्य) शरीरस्य । शरीर के स्वामीने धारण किया उसे धाता (आत्मा ने) सूर्य और चन्द्रमाको मन और वारणी आदिको (भाव प्राणों स े द्रव्य प्राणोंको) यथा पूर्वमकल्पयत् यथावत् बनाया तथा ( दियंच, पृथ्वी) अन्तरिक्ष, पैर, उदर, मस्तक यादि स्थूल शरीरको भी रखा ।
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अभिप्राय यह है कि यह आत्मा जिस प्रकार मकड़ी अपने जालेको बनाती है उसी प्रकार अपने शरीरकी रचना भी स्वयं करती है। यह किस प्रकार होता है यही यहां बताया गया है। यही वेदोंका सार है जो इसको नहीं जानता, वह किस प्रकार ऐस े अत्यन्त गुप्त मन्त्रोंका अर्थ कर सकता है ।
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