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________________ ( 8 ) परा चैवापरा च ॥ ४ ॥ मुण्ड को ० १ | तत्राऽपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदऽथर्वेदः ॥ अथपरा यया तद चर मधिगम्यते ॥ ॥ अर्थात्-दो विद्यायें जाननी चाहिये परा विद्या और अपरा विद्यr । ऋग्वेद आदि चारों वेद तथा तन सम्बन्धी अन्य साहित्य पराविद्या अर्थात् सांसारिक विद्यायें हैं। तथा जिस विद्या के द्वारा यह अन्तरात्मा प्रत्यगात्मा विविक्तारमा जाना जाता है, वह परा किया है । | अर्थात् उपनिषद् आदि अध्यात्म शस्त्रों को अपरा विद्या कहते हैं । निरुक्त कारकं मतमें वेदों अत्यल्प मन्त्र अध्यात्मिक हैं और उपनिषदों के मत से वेदों में अध्यात्म ज्ञान है ही नहीं । श्रथवा यदि है भी तो इतना गौण रूप से है बराबर हैं । कि वह नहीं के इसकी पुष्टि गीता में की गई हैं। यथा वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः || २ | ४२ श्रुति विमति पना ते यदा स्थास्यति निश्चलाः || तथा गुया विषया वेदाः ॥ अभिप्राय यह हैं कि जो वेदवादमें रत हैं वे लोग यज्ञादिकसे ऊपर आत्मिक ज्ञानको नहीं मानते तथा न ही मोक्ष आदिको मानते हैं । इसलिये ये लोग जब तक अध्यात्म ज्ञानमे स्थिर बुद्धि नहीं होंगे उस समय तक इनका कल्याण नहीं होने का। क्योंकि ये वेद तो त्रिगुणरूपी रस्सी है जिससे जीवोंको बाँचा जाता है । अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण आचार्यका तथा ऋषि आदिकोंका
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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