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________________ कठोर तपसे इन लोकोंको ( शरीर आदि का ) श्रथवा इनके ज्ञान को प्राप्त किया है। यह जीवात्मा सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। यदि इसको ईश्वर माना जाय तो क्या ये लोक उसको प्राप्त न थे जो इप गरीबको इनकी प्राप्ति के लिये इतना परिश्रम और घोर सप करना पड़ा । तथा ज्ञात होता है कि इस ईश्वरको सेमि रस बड़ा प्रिय था तभी ता उसने इसको केवल अपने लिय बनाया था, परन्तु वैदिक ऋषि तथा इन्द्र श्रादि देवता भी इस सेाम पर मुग्ध हुय विना न रह सके, उन्होंने इस निराकार ईश्वरको ता साम देना चन्द कर दिया और अपने अाप इसका रसास्वाद लेने लगे नहीं नहीं इसीमें तल्लीन होनपे । शायद इसीलिये ईश्वरने यह सेोम उत्पन्न करना बन्द कर दिया। तथा घ, क्रां० २११५।२३ में इस ज्येष्ट माझकी उत्पत्तिका कथन किया है। ( तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म जयेष्ठम् ) इसका अर्थ पं. राजारामजीने ही किया है कि उससे चाक्षणीका यष्ठ ब्रह्म उत्पन्न झुआ)" अतः यह उत्पन्न होने वाला व्यक्ति ईश्वर नहीं होसकता । यह तः हुई मूक्त ७ की अवस्था अब आप थोड़ी सी व्यवस्था सूक्त ८ की देख लें । उसमें लिखा है कि-- त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।। त्वं जीणों दण्डेन वचसि त्वं जातो मनसि विश्वतोमुखः ॥ १०२७ तिर्यग्विलश्चमस ऊर्च बुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् । तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवः ।।।।८।६
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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