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देव सेना लेकर असुरोंके देशों पर हमला करते थे, असुरोंके ग्राम जलाते थे, उनके किलोंको तोड़ते थे, उनको करल कहते थे । अर्थात् जिस प्रकार असुर जातिके लोग देव जातिके सोगोंके कटके हेतु थे, ठीक उसी प्रकार वेष जातिके लोग जाति के लोगों के दुःखके कारण थे। इसीलिए असुर शब्द भाषा (संस्कृत) में भयानक अर्थमें प्रयुक्त होने लगा और देव शब्द असुर भाषा र अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। क्योंकि असुरोंके विषय में जैसा कटु अनुभव देवोंके लिए आता था उससे भी अधिक कटुवा अनुभव देषोंके विषय में बमुरोको भाता था। इसलिए परस्परकी भाषाओं में उक्त शब्द इतने श्री विलक्षस अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं ।
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इसका एक उदाहरण इस समय में भी देखा जा सकता है। पठान लोग बनेका डर महाराष्ट्रमें इस समय लड़कोंको दिखाते हैं और पठानोंके देशके मराठोंकी डर दिखाते हैं। इसका तात्पर्य इन लोगोंने परस्पर के देशमें अत्यधिक घात पात किए थे। कुछ काल तक इन घातपात का स्मरण रहता है और कुछ समय बारूद शब्दों का वही अर्थ प्राप्त होता है। अनन्तकाल व्यतीत होनेके पश्चात् मूल कारण भूला जाता है। शब्दकी व्युत्पत्ति करने वाले को मूल इतिहासका पता हुआ तो व्युत्पत्ति ठीक करता है, नहीं तो पांगत व्युत्पत्ति गढ़ते हैं। मूलकारणका ठीक पता न होनेके कारण ऐसा होना स्वाभाविक है। भारतवर्ष में तो इसके उदाहरण अनन्त है। क्योंकि देववाणी-देव-भाषा-(संस्कृत भाषा) के शब्दोंमें सप्तद्वीपोंका इतिहास भरा हुआ होने के कारण - हरएक शब्दकी उत्पतियाँ और व्युत्पत्तियाँ अनेकानेक की गई हैं। उनमें कई इतिहासकी दृष्टिसे ठीक हैं और कई गलत हैं। परन्तु इस समय उसका पता लगाने के लिए ठीक मार्गकी खोज करना