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की भांति पूर्व २ जीवाचित अविवाओं से उत्तर जीवोंकी कल्पना हो सकती है, ऐसा माननेसे जीव अनित्य होगा, और बिना किए हुए कर्मका फल मिलना यह दोष भी आयेगा, इसी बात से श्रझमें भी དག जल से उत्तरजीवक पनाका खण्डन समझ लेना चाहिए, अविद्याको प्रवाह रूपसे अनादि मानने पर तत्कल्पित जीवको भी प्रवाह रूपसे अनादि मानना पड़ेगा, इस लिए मोक्ष पर्यन्त जीव भावका नित्य रहना अद्वैतवाद में सिद्ध नहीं हो सकता और जो अविद्याको निर्वाचनीय मानकर उसमें इतरेतराभयादि दोषोंको भूषण-रूप माना है इसमें वक्तव्य यह है कि यदि ऐसा माना जाये तो मुक्त पुरुषोंको, और परझको भी श्रविद्या प्रस लेगी, यदि कहो कि वह शुद्ध और विद्या स्वरूप है, इसलिये उनको अविद्या नहीं लग सकतीं तो फिर किस तर्कसे शुद्ध चेतनको अविद्या आश्रमण कर सकती है और उक्त व्यक्तियों से जीव को भी आश्रयण नहीं कर सकती, क्योंकि अवियाके लगने से प्रथम वह भी शुद्ध था. इसके अतिरिक्त प्रव्य यह है कि Tea fares होने पर अथिया नाश परसे जीवका नाश होता है वा नहीं ? यदि होता है तो स्वरूप नाश रूप मोक्ष हुआ, यदि नहीं होता तो अविद्या के नाश होने पर भी मोक्ष नहीं होगा. अर्थात् ब्रह्म स्वरूपसे भिन्न जीव ज्योंका त्यों ही बना रहा फिर ब्रह्मात्मैकरव रूप मोक्ष मानना ठीक नहीं, क्योंकि अद्वैतवादियों के मनमें ब्रह्मसे प्रथक जीव बने रहने से मुक्ति नहीं होती और जो यह कहा गया है कि मपि नलवार और दर्पण आदिकों में जैसे मुख का मैलापन, वा शुद्धपन अथवा छोटापन आदि प्रतीत होता है siture उपाधिभेदसे शुद्ध अशुद्ध आदिकों की व्यवस्था हो सकेगी. यहां विचारणीय यह है कि अल्पल मलिनत्वादि जो उपाधिकृत दोष हैं वह कब नाश होंगे ? यदि कहा जाय कि तलवार आदि उपाधियोंके हट जानेसे. तो प्रश्न यह है कि
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