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________________ ( ५२८ ) है कि अद्धैतवादी लोग जीव के नाश को ही मुक्ति मानते हैंसिद्धि के लिये अज्ञान को जीवाश्रित मानते हैं, पर यह व्यवस्था जीव के अज्ञानी मानने पर भी नहीं बन सकती क्यों कि यह लोग अविद्या, के नाश को ही मुक्ति मानते हैं. तब एकके मुक्त होने पर औरोंको भी मुक्त होना चाहिय, यदि यह कहा जाय कि अन्योंके मुक्त न होने के कारण अविद्या बनी रहती है तो एककी भी मुक्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अन्धका कारण अविद्या बनी हुई है. यदि यह कहें कि प्रत्येक जीवकी अविद्या पृथक् २ है. लिएको भविमा ना हो तो अपना और जिसकी बनी रहेगी यह बद्ध रहेगा,तो यहां प्रष्टव्य यह हैकि यह भेद स्वाभाविक है वा अविद्या कल्पित ? स्वाभाविक इसलिए नहीं कह सकते कि जीयाके भेदके लिए जो अविद्या की कल्पना की गई है वह व्यर्थ हो जायगी, यदि कहोकि वह भेद अविद्या कल्पित है तो प्रश्न यह है कि भेदकी कल्पना करने वाली अविद्या प्रामकी है वा जीवोंकी ? यदि बाकी है तो हमारी ही बात माननी पड़ेगी, कि एक अविद्याके नाश होनेसे सबकी मुक्ति कैसे हो जानी चाहिए, यदि जीवांकी है तो प्रथम जीव हो तो उनके आश्रित अविया बने और अविद्या हो तो जीवीका भेद हो सके यह इतरेतरामय दोष सर्वथा अनिवार्य बना रहेगा, अदि यह कहा जाय तो कि-बीजाकुरकी भांति उक्त दोष नहीं हो सकता. अर्थात् जैसे बोजसे अंकुर और अंकुरसे बीज इस प्रकार अविद्यासे जीव और जीवसे अविद्या होना सम्भव है. यह इस लिये ठीक नहीं कि बीजांकुर न्यायमें तो जिस बीजसे जो वृक्ष होता है उससे फिर वही बोज' नहीं होता किन्तु दूसरा होता है, और यहां तो जिस अविद्यासे जो जीव कल्पना किये जाते हैं उन्हीं जीवोंको आश्रय करके यह अविद्याथें रहती है. यदि कहा जाय कि बीजांकुर न्याय
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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