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श्रीणिशता श्रीसहस्राएयग्नि त्रिशञ्चदेवानव चासपर्यन ।।
ऋ० ३ । ६8 ३३३६ देवोंने अग्निकी पूजाकी है।
श्री. पं. भगवदत्त जी ने वैदिक वांगमय के इतिहास में, वेदभाष्यकार स्कन्द स्वामी का वाक्य लिखा है जो उन्होंने मीमांस का के सिद्धान्त के विषय में लिया है । यथा
"कैश्चित्तु मीमांसकः वेदोषरमपुनिषद् न बाग व्यवहारातीतम् ब्रह्म इति शून्यचाचो युकिरिति वदभिः अपहसितम्
पृ० २३० अर्थात -कई मीमांसक उपनिषदों को वेद का बंजर भाग बताते हैं उनका कहना है ( वाग व्यवहार से रहित युक्ति श्रादि से विरुद्ध वर्णनातीत ) शून्य ब्रह्म वेद का विषय नहीं है ।" इस प्रकार से ये लोग ईश्वर वादियों का मजाक उड़ाते हैं।
सारांश यह है कि यानिक लोग वेदों में ईश्वर का जिकर नहीं मानते उनके मातानुसार वेदों में यज्ञा का ही वर्णन है । सृष्टि श्रादि की उत्पत्ति का कथन सब 'अर्थवाद' मात्र अर्थात् भक्तो की ( भक्ति के श्रावेश में) कल्पना मात्र है । इसका विशेष कश्चन हम 'मीमांसा' प्रकरणमें करेंगे।
प्रजापति यज्ञ
शतपथ ब्रा में लिखा है कि