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इससे खुदा खुश होकर हमेशा के लिये स्वर्ग में भेज देता है । इसलिये वह ऐसा ही करता है, तो यह पाप है या पुण्य ? तथा इसका फल इसको क्यों मिलना चाहिये ? क्योंकि इसका कुछ भी अपराध नहीं है, इसमें यदि अपराध है तो ईश्वरका है. क्योंकि उसने इसको ऐसे कुल में व धर्म व जाति में उत्पन्न किया कि जिसमें इसको ऐसी शिक्षा मिली और वह उस रूप हो गया । अतः ईश्वर की हो यह सब करतूत है, फल भी उसीका मिलना चाहिये इसलिये आत वचन को भी धर्म नहीं कह सकते ।
यदि सृष्टि नियमको धर्म मानें तो भी वही समस्या है कि सृष्टि नियम क्या है. यह जानना भी आज तक सम्भव नहीं हुआ I अतः यह साधन भी गलत है। बस जब यही ज्ञान नहीं है कि ईश्वर किस कार्य से प्रसन्न होता है और किससे नाराज होता है, तो हम उसको नाराज करके दस्त के भागी भी नहीं बन सकते । यदि कहो कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है उसमें जो लिखा है वह धर्म हैं। तो भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो वेद ईश्वरीय ज्ञान नहीं है । दूसरी बात यह हैं कि वेदों में क्या लिखा है इसी को आज तक किसी ने नहीं जाना है। मांस, शराब, जुआ. चोरी, व्यभिचार आदि सभी पापों की शिक्षा वेदोंसे प्राप्त हो जाती है तथा वेदोंमें ही इनका विरोध भी मिलता है, अतः कौनसे धर्मका प्रतिपादन है यह जानना भी कठिन ही नहीं अपितु असंभव ही है इसलिए यह साधन भी धर्मका ज्ञान नहीं
करा सकता ।
स्वतन्त्रता
कर्मका उत्तरदायी वही हो सकता है जो स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करता है, परन्तु हम संसार में देखते हैं कि कोई भी व्यक्ति कर्म
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