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________________ कल्पना करते है। बुद्धिमान इत्वक गए एक ही सवस्तु की बहु प्रकार से, बहुत नामों से, कल्पना करके यश सम्पादन किया करते हैं। एक ही अनि बद्र प्रकार से बहत स्थानों में प्रज्वलित हुश्रा करता है। एक हो सूर्य समम विश्व में अनुगत-अनुस्यूत हो रहा है। एक ही ऊम सब वस्तुओं को विविध रूप से प्रकाशित. करती है । एक ही वस्तु विश्व में विविध वस्तुओं का आकार धारण कर रही है। इन मंत्रों में पाठक देखें, अग्नि, यम, मित्र, चरणादि एक ही सद्भस्तु के नामान्तर और एक ही वस्तु के विविध प्राकार है। देवता एक ही देवता के अंग प्रत्यंग स्वरूप हैं। अग्नि, सूर्य, वरुणादि देवता एक ही सत्ता के, एक ही वस्तु के भिन्न २ रूप और भिन्न २ नाम मात्र है, यह तत्व ऋग्वेद में उत्तम रीति से मिलता है । इस लत्त्व को हम ऋग्वेद में एक अन्य प्रकार से भी देखते हैं । अभि की स्तुति करते हुए ऋषि अनुभव करते हैं, कि इन्द्र चन्द्र वरुणादि सब देवता अग्नि के मध्य में अन्तमुक्त है- ये सब अग्नि के ही शाखा स्वरूप हैं। विष्णु की स्तुति के समय भी कहा गया कि अन्यान्य देवता विष्णु केही शाखा स्वरूप हूँ । म प्रकांड वृझकी शाखा प्रशास्त्राएँ जैसे वृक्षके ही अंग-प्रत्यंग स्वरूप है, वृक्ष की लना में ही जैसे शाखा प्रशास्वात्रों की ससा है पैसे ही सभी देवता एक ही परम देवता के "या" (शाखाः) इदन्याभूताति अस्थ" (२२३५/८)। अस्य देवस्य चया विष्णोः (१४०/५) 'त्वे विश्वे सहसःषुत्र देयाः [[कम्य पात्मनः अन्ये देवाः प्रत्यंगानि भवन्ति कर्म जन्मानः प्रात्मजन्मानः इत्यादि (निम्ता |७|४) । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में भी सूर्य, अभिप्रभृनि देबनाव की पुरुष के अंग प्रांग रूप में वर्गना की गई है।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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