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ऐसी अवस्था में बह अशरीर होने के कारण कर्ता नहीं हो
सकतः
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कारणवच्चेत् न भोगादिभ्यः ॥ ४० ॥
यदि इन्द्रियों की तरह उसकी ( ईश्वर की ) प्रवृत्ति मानो तो ठीक नहीं। क्योंकि उस अवस्था में ईश्वर भी भोगरोग में फंसकर ईश्वर गमा देगा |
अन्तयत्व सर्वज्ञता वा ॥ ४१ ॥
अर्थ — अन्तवाला अथवा अल्पक्ष होनेसे नैयायिकों का कल्पित ईश्वर सिद्ध नहीं होता ।
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अभिप्राय यह है कि नैयायिक लोग जीवों तथा परमाणुओं को भी अनन्त मानते हैं. तथा प्रत्येक जीव की तथा परमाणु की सखा भी भिन्न भिन्न मानते हैं। अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब ईश्वर, जीव परमाणु तीनों अनन्त माने जाते हैं. सो free अपने और जीवादिके अन्त को जानता है यान्तहीं। यदि कहो कि जानता है तब तो ईश्वर भी घन्त वाला हो गया तथा जीव भी अनन्त न रहे। ऐसी अवस्था में मोक्ष में जाते जाते एक दिन जीवों का संसार में प्रभाव भी हो जायेगा । उस समय यह सृष्टि आदि भी नहीं रहेंगी। फिर वह ईश्वर भी किस का रहेगा । यदि कहो कि ईश्वर अपना और जीवादि का अन्त नहीं जानता तो वह सर्वश न रहा । ऐसी अवस्था में भी उसका ईश्वरत्व गया । तथा तीनकी संख्या भी ईश्वर के अनन्त होने का खंडन करती हैं।
प्रिय पाठक वृन्द ! श्री शङ्कराचार्य ने यहाँ ऐसी प्रवल और तात्विक युक्ति दी है कि ईश्वरवाद को जड़ सहित उखाड़ कर फेंक दिया है। आपका कि जब परमाणु और ईश्वर प्रथक जातिके द्रव्य हैं, तथा उनके गुण आदि सब भिन्नर हैं, एक जड़े हैं