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________________ ( ६०५ ) घदित किया जायेगा । वास्तवमें तो यहां अग्नि तथा सूर्यका वर्णन हैं यह बात इस अध्यायके पाठसे सहज ही अवगत हो जाती है. इसी अध्यायके मन्त्र में आया है। "अयमग्नि चारतमो वयोधाः सहस्त्रियो घोतताम्" अर्थात्-ग्रह अग्नि वीरवर है, तथाच वग्रस (अनिका धारण करने वाला अथवा देने वाला है एवं सहस्रियः अर्थात सबका पूज्य है मामा जान्नकाला है नवाच इस मामले में लिखा है कि - अयमग्नि सहस्रिणो बाजस्य शतिनस्पति । अर्थात् यह अग्नि शत. सहस्र. अन्नोंके स्वामी है । मन्त्र ५ में सहस्रियः यद अप्टिका विशेषण है, जिससे स्पष्ट है कि यहां सहस्रके अर्थ हजार चतुर्थग किसी प्रकार नहीं लिये जा सकते मंत्र २१ में साहस और शत' यह अन्धका विशेषरण है । बस मंत्र ६५ में भी सहस्त्र सब्दक अर्थ अन्नके ही है अन्न नाम इवि का भी है, इसलिये यहां त्वा तेरेको यह शब्द महा है जिसका अर्थ है प्रश्न के लिये अथवा हविके लिये तुझके प्रज्वलित करता हूँ। यदि यह अर्थ न करके श्री स्वामी जी कृन नहन्त्र शन्नके अर्थ स्वीकार किये जाये तो हजार चतुगोंके लिये श्वरको क्या किया जायेगा. संभव है इनने समय तक ईश्वरको याज्ञा दी जाती हो कि आप इतने समय तक अनश्य ही स्मृष्टि उत्पन्न करें। ____ श्री स्वामी जी ने ही जो प्रथं इस मंत्रका स्वकीय भाष्यमें किया है हम उसीको उपस्थित करते हैं। पनार्थः-- हे विद्वान पुरुष : विदुषी स्त्री का, जिस कारण तू सहस्र असंन्यात पदाथोसे युक्त जगनक ( प्रमाण यथार्थ ज्ञान के तुल्य है । असंख्य विशेष पदार्थों के तोलन साधनके तुल्य हैं असंख्य स्थूल वस्तुओंके तोलनेकी तुलाके समान हैं। और
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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