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के विश्वासी एवं सरल स्वभाव के सन्यासी हैं, जो कहीं बंधा हुआ नहीं है, पर सर्वत्र बंधा हुआ है। उनके 'बिराग' का अर्थ 'विशि ष्ट राग - विश्वात्मा के प्रति संकीर्ण कोमलता है। इस प्रकार के एक साधु भी हैं और इतिहास के विनम्र विद्यार्थी भी हैं।
'स्याद्वाद' कर्मफलासफी और आत्म-स्वातन्त्र्य के सिद्धान्तों की त्रिवेणी में स्नान कर वे आज 'जिनधर्म ' कल्पतरु की शीतल छाया में आकर खड़े हैं, उसी शान्त मुद्रा में, निर्विकार भाव से और बंधन होन । महावीर जयंती के अवसर पर महावीर सन्देश के नाम से अपना जो भाषण उन्होंने ब्राडकास्ट किया था, वह इस बात का प्रमाण है कि वे धर्म को विशुद्ध जीवन तत्व की दृष्टि से देखते हैं— उसके वाह्यविस्तार में फंस कर ही नहीं रह जाते ।
उनके अध्ययन के फलस्वरूप राष्ट्र-भाषा को उन की कई पुस्तकें प्राप्त हैं। उनमें परिस्थितिवश एवं सामयिक चीजों को छोड़ कर वैदिक ऋषिवाद, सृष्टिवाद, 'भारत का आदि सम्राट' और धर्म के ऋषि प्रवर्तक, कर्मफल कैसे देते हैं, का नाम उल्लेखनीय है। पहली पुस्तक में मन्त्रसृष्टा ऋषियों का अनुसन्धान है। यह स्वामी जी के वैदिक साहित्य सम्बन्धी अध्ययन का सुन्दर फल है। खोज के कार्य में मतभेद होना स्वाभाविक है, पर संस्कृत के प्रकाण्ड परिवत श्री डा० गंगानाथ का एम० डी० लिट (वायस चान्सलर प्रयाग विश्वविद्यालय) के शब्दों में 'वैदिक ऋषिवाद' एक निष्पक्ष, गवेषणात्मक पुस्तक है। दूसरी पुस्तकों के सम्बन्ध में भी इसी तरह की सम्मति दी जा सकती है. इसमें मुझे सन्देह नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में आपने ईश्वर के स्वरूप एंव उसकी