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प्राक्कथन
यह शायद १९३४ की बात है। मैं विकास के श्रार्यसमाज अंक में जाने वाले लेखाक देख रहा ५ , उनमें सामानन्द जी का भी एक लेख्न था—जैन धर्म और वेद' । एक प्रचारक के रूप में मैंने उनका नाम सुन रखा था, पर इस लेख में प्रचारक की संकीर्णता के स्थान में सर्वत्र सौन्दर्य दर्शन की भाषना के साथ विविध प्रवृत्तियों का ऐसा सुन्दर सामञ्जस्य था कि मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका । उसके माद तो भनेकवार अनसे मिलने एवं विविध विषयों पर विचार-विनिमय करने का भक्सर मिला है और सदा ही मैंने अनुभव किया है कि उनका अध्ययन बहुत व्यापक है। इनके अध्ययन का मुख्य विषय धर्म और इतिहास
बहुत से ग्रन्थ पढ़ डालना एक साधारण बात हैं, पर स्वामी जी के अध्ययन की दो असाधारणताएं हैं, पहली यह है कि ये अध्ययन से पूर्व कोई सम्मति निर्धारित करके मागे नहीं चलते जिससे कि अपने शुदय का भार बलात अध्ययन पर लाना पड़े
और दूसरी यह कि वे उस अध्ययन पर अपने दृष्टिकोण से स्वतंत्र विमर्श करते हैं। इस प्रकार जो निष्कर्ष निकलता है, वे उसे मानते हैं, उस पर लिखते हैं, पर यदि बाद का अध्ययन उन्हें इधर उधर करता है तो वे उससे भी घबरासे नहीं हैं। उनके स्वभाष की इस उदारता का आधार उनकी राष्ट्रीय मनोवृत्ति है, जो उन्हें राष्ट्र और धर्म का समन्वय करके साथ-साथ चलने की क्षमता देती है ! वे पक्षपात से हीन, बनावट से दूर, मूक सेवा