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________________ ( २९४ ) 'ॐ' की व्याख्या में लिख चुके हैं। अर्थात् बहिष्प्रज्ञ, अन्त- प्रज्ञ, और प्रज्ञानघन, ये तीन मात्रायें ॐ की तथा चतुर्थं मात्रा इनसे ऊपर जिसको तुरीय अवस्था कहते हैं, वह श्रात्माकी शुद्धावस्था है । इस आत्माकी प्रथम अवस्था में ही सब स सार है । इसीको हित्मा संसारी कहते हैं। इसकी अन्य अवस्थाओं में संसारका नाश हो जाता है। अर्थात- यह ससारसे विरक्त होजाता है । यहीं मन्त्र छा ०३०१५८६ में भी श्राया है। वहाँ श्री शंकराचार्य लिखते हैं कि-"पुरुषः सर्व पूर्णात् पुरिशयनाच्च । " (शरीर ) में शयन करने यह पुरुष है । तथा च यजुर्वेदभाष्य में उबट' लिखते हैं कि"त्रयोशाः अस्य पुरुषस्य अमृतम् ऋग्यजुः सामलनम् आदित्य लक्षणं वा दिवि द्योतते इति ।" अर्थात -- सबको पूर्ण करने से व पुर से 1 अर्थात- इस पुरुष के तीन अंश (ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद, लक्षण वाले, अथवा सूर्यरूप) लोक में है। इसी प्रकार अन्य भाष्यकारों भी अनेक कल्पनायें की हैं। परन्तु छान्दोग्य उप निषद् ने इसे राष्ट्र कर दिया है । यथा यद् वै तत्पुरुषे शरीरमिदं वाच तद् यदिदमस्मिन्न अन्तः ra पुरुषे हृदयमस्मिन्ही मे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव नाति शीयन्ते ॥ ४ ॥ षा चतुष्पदा विधा गायत्री तदेतदृचाभ्यनुक्रम् ||५|| तावानस्य महिमा ततो ज्यायांच पूरुषः । पादोऽस्य विश्वभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि || ६ || -
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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