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________________ यहाँ सभी भाष्यकारोंने यही अर्थ किया है। अतः या अन्नाद्जीव, ईश्वर नहीं है । वास्तवमै तो यहाँ धम् शब्दके अर्थ अष्टकर्म ही सुसंगत हैं। कोका फल अात्मा स्वयं किस प्रकार देता है इसका वर्णन हम उसी प्रकारणमें करेंगे। तथा च वेदान्तसूत्रोंसे जो ईश्वर फल प्रदाता निकाला जाता है यह भी ठीक नहीं है । इसका भी विस्तारपूर्वक विवेचन यहीं होगा। . अन्न दू में प्रच्यन्ते .... 'अन्नाद् भृतानि जायन्ते । जातान्यन्नेन वर्धन्ते ।। स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । ते० उ० २।२।१ ___ अर्थात्--अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है. फिर वह अन्नसे ही जीती है। अन्नसे ही प्राणि उत्पन्न होते हैं. तथा अन्नसे ही बढ़ते हैं। इस अन्नरसमय पिएसे. उसके भीतर रहने वाला दूसरा - शरीर प्राणमय है। उसके द्वारा ग्रह ( अन्नमय कोश ) परिपूर्ण है । अन्नमय कोशी पुरुषाकारताके अनुसार ही यह प्राणमय कोश भी पुरुषाकार है। आदि । इस प्राणमयकोशसे अन्नमय काशकी रचनाका नाम ही पुरुषकी सृष्टि रचना कहलाती है। यह सम्पूर्ण कार्य अन्नसे ही होते हैं अतः इसीको ‘अन्जेन अति रोहति श्रुतिमें अन्नसे बढ़ता है, यह कहा है। मन्त्र तीसगा--- ___ "एतावानस्य महिमा" इस मन्त्रमें कहा है कि इस पुरुपके चार पाद है. इसके एक पादमें सम्पूर्ण संसार है, तथा तीन पाद गुलोकमें अमर हैं। यहाँ भी इसी आत्माकी चार अवस्थाओंका वर्णन है जैसा कि हम E
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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