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________________ ( ७५६ ) प्रकार अनवस्था दोष भी आयगा । यदि यह कहो कि ईश्वर का स्वभाव है, इसलिये उसके नियामक की आवश्यकता नहीं है तो यहाँ भी यही मानो कि ये सब पुद्गल के स्वभाव हैं, इनके लिये भी नियामककी आवश्यकता नहीं हैं। तथा जहाँ आपने उपरोक्त नियम दिखलाये हैं वह यह भी एक नियम दिखलाना चाहिये था कि नियामक सर्वथा सशरीरी और एक देश होता है । सर्व व्यापक और निराकार वस्तु कभी नियामक नहीं होती जैसे आकाश । अतः इन नियमों से भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रयोजन तीसरा हेतु आपने प्रयोजन दिया है, आप लिखते हैं कि-"तीसरी चीज जो संसार में दृष्टि गोचर होती है वह प्रयोजन 1 वस्तुतः नियम और एकता व्यर्थ होते यदि प्रयोजन न होता । सब लड़कों के साथ शाला में आने का नियम व्यर्थ नहीं है । इस का प्रयोजन हैं। प्रयोजन ही इस कार्य को सार्थक बनाता है । संसार की सभी वस्तुओं और घटनाओं से किसी विशेष प्रयोजन की सूचना मिलती है। जहां कही भिन्नता है उससे भी प्रयोजन की सिद्धि होती है। यह प्रयोजन कभी मनुष्य की समझ में श्राता है और कभी नहीं आता है। परन्तु प्रयोजन है अवश्य समझने की तो यह बात है कि एक मनुष्य का प्रयोजन दूसरे मनुष्य की समझ में नहीं आया करता । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई प्रयोजन है ही नहीं । एक समय एक यूरोप निवासी यात्री अरब के बदुओं के यहां मेहमान हुआ। एक दिन वह प्रातः काल उसके तम्बू के सामने टहलने लगा | बद्दलोग उसको देख कर हँसने लगे। उन्होंने समझा कि कैसा मूर्ख है कि निष्प्रयोजन एक ओर से दूसरी ओर टहल रहा है । परन्तु उस यात्री का प्रयोजन स्पष्ट था । यही हाल संसार का है यहाँ को सैकड़ों
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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