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________________ ( ४८२ ) 1 सप्तधा या सात प्रकारकी कहें। परन्तु गीता कारको अभी था कि उस विरोध दूर हो जावे' और 'अष्टधा प्रकृति' का वन बना रहे. इसी लिए महान अहंकार और पंचतन्मात्राएं, इन सातों में st a ar are sो सम्मिलित करके गीता में बन किया गया है. परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप अर्थात् मूल प्रकृति धा हैं. ( गी० ७ १५ ) । इनमें से केवल मन ही में इस इन्द्रियों का और पंचतन्मात्राओं में पंच महाभूतों का समावेश किया गया है। अब यह प्रतीत हो गया कि गीता में किया गया वर्गीकरण सांख्यों और वेदान्तियों के वर्गीकरण से यद्यपि कुछ भिन्न है. तथापि इससे कुल तत्वों की संख्या में कुछ न्यूनाधिकता नहीं हो जाती । सब जगह तत्व ही माने गये हैं। परन्त वर्गीकरण पश्चीम की उक्त भिन्नता के कारण किसीके मनमें कुछ भ्रम न हो जायें इस लिये ये तीनों वर्गीकरण कोष्टक के रूप में एकत्र करके आगे दिय गये हैं। गीताके तेरहवें अध्याय (१३५ ) में वर्गीकरण के झगड़े में न पड़ कर. सांख्योंके पश्चीस तत्वोंका वर्णन ज्योंका त्यों पृथक पृथक किया गया है. और इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि या वर्गीकरण में कुछ भिन्नता हो तथापि तत्वों की संख्या दोनों स्थानों पर बराबर ही है । यहां तक इस बात का विवेचन हो चुका कि पहले मूल साम्यावस्था में रहने वाली एक ही अवयव रहित जड़ प्रकृति में व्यक्तमृष्टि उत्पन्न करने की अस्त्रयं बेय 'बुद्धि' कैसे प्रगट हुई. फिर उसमें अहंकार से अवयत्र सहित विविधता कैसे उपजी और इसके बाद 'गुणों से गुण' इस गुण परिणाम बाद के अनुसार एक ओर सात्विक (अर्थात् सेन्द्रिय) सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इंद्रियां, तथा दूसरी ओर तामज ( अर्थात् निरिन्द्रिय) सृष्टि की मूलभूत पाँच सूक्ष्म तन्मात्राणं कैसे निर्मित हुई। अब
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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