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________________ ( ८०४ ) तो ऐसे देशों तथा कुलों में या जातियों में उत्पन्न कर दिये गये हैं. जो पशुओं जैसी ही है। उन्होंने भी धर्म और अधर्म को आज तक नहीं जाना है । यदि जाना है तो पाप को ही हुए जाना है । कुलों में ईश्वर का मनुष्यों को उत्पन्न करना यह सिद्ध करता है कि ईश्वर जीवों को कर पापी, अज्ञानी बनाना चाहता है। आप के अन्तिम को दो को ही ये नहीं सका है यदि समझते तो इस प्रकार की पुस्तक कभी न लिखते शेष रह गया स्वतन्त्रताका प्रश्न सो तो ऐसी ही स्वतन्त्रता है कि जैसे कि किमी के हाथ पैर बांध कर गेर दिया जाये और उस से कहा जाये कि I तू भाग ने में स्वतन्त्र है । अथवा सम्पूर्णानन्दजीके कथनानुसार हाथ पैर बांध कर समुद्र में डाल दिया जाये और फिर. उससे कहा जाये कि तू अपने वस्त्र भिगोने और न भिगोने में स्वतन्त्र है । इसी प्रकार आप भी मनुष्य को स्वतन्त्र बताते हैं "पनी जा" दार्शनिकका यन्त्र इसी के आधार पर हैं कि संभार स्वतन्त्रता नहीं है। उसका कथन है कि संसारमें कहीं भी स्वतन्त्रता नहीं है। सब कुछ अपने कारणों द्वारा नियन्त्रित या निर्धारित है जीवके व्यापार भी स्वतन्त्रता पूर्वक नहीं है । तथा आज हस्तरेखा विज्ञानने तथा शारीरिक विज्ञानने यह सिद्ध कर दिया है कि जो मनुष्य चोरी आदि करते हैं उनके शरीरकी रचना ही ऐसी होती है जिससे उनका स्वभाव ही वैसा हो जाता है । इसका विशेष वर्णन हम कर्मफल प्रकरण में कर चुके हैं। अतः यह सिद्ध है कि मनुष्य स्वतन्त्र नहीं हैं। जब न तो उसके पास साधन है और न यह स्वतन्त्र हो है फिर जो भी पाप अत्याचार आदि वह करता है उसका उत्तरदायित्व ईश्वर पर आता है। रह गई भय, शंका, और लज्जाकी बात । यदि वास्तवमें ऐसी बात है कि इनको ईश्वर उत्पन्न करता है, तब तो
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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