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________________ (८.३ । कैसे जाना जाये ? जब तक इस उद्देश्य का मान न हो उस समय तक पाप और पुण्य का ज्ञान नहीं हो सकता, इस अवस्थामें जीव जो भी काम करता है उस का उत्तरदायित्व जीव पर नहीं होना चाहिये, क्योंकि उसको आज तक पुण्य को न तो यह परिभाषा बताई गई और न अन्तिम उद्देश्य ही ।। आपने आगे लिखा है कि "ईश्वर ने संसार में पाप क्यों उत्पन्न किया ? इस प्रश्न का रूपान्तर यह होगा कि ईश्वर ने मनुषयों को अन्तिम उदश्य का और उसके साधन पाप करने या न करने को स्वतन्त्रता क्यों दी ?' इस रूपान्तर को बनाने के लिये इस पुस्तक के इतने पृष्ट काले किये । तथा अपनी सारी विद्वत्ता खर्च की है ? श्री मान जी इस प्रश्न का रूपान्तर यह है कि ईश्वर ने जोव मान को पाप और पुण्य का स्पष्ट शब्दों में ज्ञान क्यों न कराया ? तथा पुण्यात्मा बन ने के लिये प्राणियों को साधन सम्पन्न और स्वतन्त्र क्यों नहीं बनाया ? इस में तीन बाते हैं ( १) प्राणी मात्र को ज्ञान न देना। [२) साधन सम्पन्न न बनाना । ( ३) स्वतन्त्र न करना । पहली बात ज्ञान का न देना तो प्रत्यक्ष ही है यदि कहो कि वेदों का ज्ञान दिया है. तो एक भारी भूल है. क्यों कि वेद ईश्वर प्रदत्त नहीं है। इसका हमने वैदिक ऋषिवाद' नामक पुस्तक में सैकड़ों प्रमाणों और युक्तियों से भी सिद्ध किया है। यहां भी संक्षेप से आगे कहेंगे : यदि यह माना भी जाये कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है तो कुर.न आदि खुदा का इलहाम ठहरेंगे, अस्तु दूसरी बात है जीवों का साधन सम्पन्न न करना । यह भ, प्रत्यक्ष है। क्यों कि कोट. पतंग, पशु, पक्षी आदि अनन्तों जीवों के पास तो पाप और पुण्य को जानने के साधन बुद्धि प्रावि नहीं है यह तो निर्विवाद ही है। शेष प्रश्न रह गया मनुष्यों का । इन परषों मनुष्यों में करोड़ों हैं
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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