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________________ (५२२ ) स्वयं च शुद्धरुपत्वादभावाचा न्यवस्तुनः । स्त्रमादिबदविद्यायाः प्रधुत्तिस्तस्य किं कृता ।। ५८४ अर्थ--जो ऐसा कहते हैं कि हम पुरुषका वास्तविक परिणाम होना नहीं कहते किन्तु अपरिणत होता हुश्रा भी अविद्याके चश पतिमान के समान विधाता नामी होड़ेग होने दुयं भी स्वप्न में जैसे हाथी घोड़े सामने खड़े हो जैसे दिखाई देते हैं छौसें ही अविद्याके घशमें पुरुष जगन् प्रपंचरूप प्रतीत होता है । वस्तुतः पुरुष जगत् रूपमें परिणत नहीं होता है, उन अविद्यावादी वेदान्तियोंके प्रति भट्टजी कहते हैं कि पुरुष स्वयं शुद्ध रूप है. अन्य कोई वस्तु उसके पास नहीं है जैसी हालतमें स्त्रानकी तरह अविद्या की प्रवृति कहांसे हो गई ? अविश भ्रान्ति है। भ्रान्ति किसी न किसी कारणसे होती है पुरुष विशुद्ध स्वभाव वाला है। उनके पास भ्रान्तिका कोई कारण नहीं है । बिना कारशके अविद्याकी उत्पत्ति कैसे हो गई,? यदि अविद्या सिद्ध न हुई तो उसके योगसे पुरुषकी जगत् रूपमें परिणति या प्रतीति भी कैसे हो सकती है ? अन्येनोषप्लवेऽभीष्टे, द्वैतवादः सज्यते । स्वाभाविकी पविद्या तु, नोच्छेत्तु कश्चिदहति ॥ ५-८५ विलक्षणोपपाते हि, नश्येत् स्वाभाविकी क्वचित् । नत्वेकात्माभ्युपायानां हेतुररित विलक्षणाः ।। ५-८६ अर्थ-विधाको उत्पन्न करनेवालापुरुषके सिवाय अन्य कारण माननेपर द्वैतवादका प्रसंग आयगा । अगर कारण न होनेसे पुरुष की तरह अविद्याको भी स्वाभाविक मामलोगेतो वह अनादि सिद्ध होगी । अनादि अविद्याका कभीभी उच्छेद नहीं होसकता। इसलिए किमीभी पुरुषका मोक्षभी नहीं होसकता। कदाचित् पार्थिव पर.
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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