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________________ ; ५२१ ) अचेतन है अतः उसे सुख दुःखकी प्रतीति होनेका संभव ही नहीं हो सकता है। अनुभव करने वाला आत्मा एक होनेसे सबके सुख दुःखके अनुसन्धान कौन रोक सकता है ? कोई नहीं। अतः अर्द्ध जरतीय परिणाम-बाद भी ठीक नहीं है। (शा० दी. १ । १ । ५ ।) अद्वैतवादके विषयमें श्लोक वार्तिककार कुमारिल भट्ट का उत्तरपक्ष पुरुषस्य च शुद्धस्य, नाशुद्धा विकृति भवेत् ॥ ५-८२। स्वाधीनत्वाच धर्मादे स्नेन क्लेशो न सुज्यते । तद्ववशेन प्रवृत्तीवा, व्यतिरेक प्रसज्यते ॥ ५-८३ अर्थ—एक ही श्रात्मा अपनी इच्छासे अनेक रसमें परिणत होकर जगत प्रपंचको विस्तृत करती है. वेदान्तियाँके इस कथनका कुमारिल भट्टी उसर देते है कि पुरुष शुद्ध और ज्ञानानन्द स्वभाव वाला है वह अशुद्ध और विकारी कैसे बन सकता है ? पुरुषका जगत् रूपमें परिणत होना विकार है। अधिकारी को विकारी कहना घटित नहीं होता है । जगत जड़ और दुःख रूप है । चेतन पुरुषमें जड़ जगतकी उत्पत्ति मानना अशक्य बात है। धर्म अधर्म रूप अष्टके योगसे पुरुषमें सुख दुःख क्लेशरूप विकार उत्पन्न हो जायेगे ऐसा कहना भी चित नहीं है । पुरुष स्वतन्त्र है धर्म अधर्मके वश नहीं हो सकता है। धर्म, अधर्म, पुरुषके वश हो यह उचित हो सकता है। सृष्ट्रिके आदिमें यदि एक ही प्रल है तो धर्माधर्मकी सत्ता ही कहां रही? यदि धर्माधर्मकी सत्ता स्वीकार कर लोगे तो द्वैतताकी आपत्ति आयेगी।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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