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किये गए और सबने मनोरथकी पूर्तियामि एकसा भाग लिया। ऋग्वेद स्वयं कहता है-- ___ "न हि वो अस्त्यर्भको देवासो न कुमारकः । विश्वेसतो महात इत"
उपासकोंने ऋचार कम या अधिक संख्याके कारण कोई विशेषोक्ति या अन्तर नहीं माना । वैधिलोनियनपौराणिक माख्यायिका के भारसे भी वैदिक स्तुपियाँक रहस्यको तुलना कर. भावोंमें भेद प्रकाशित करनेकी चेष्टा वैदिक रहस्यको समझने में सहायिका नहीं हो सकती, क्योंकि वैदिक ऋचाओंकी बातें कोरी श्राख्यायिकाएँ नहीं हैं, वास्तवमें वे जीवनके अनुभव हैं जो अलं. कारिक भाषा में लेखबद्ध हैं और उनमें भारतीय मस्तिष्ककी वह विशेषता थी जिसकी इन विभिन्न विधायाको तुम करती है। अतः वैदिक देवताओंको स्तुसियाँ सभी एक सत्तात्मक हैं और विभिन्नत.से रहित हैं चाहे वे नररूपोपम हो वा जीवरूपोपम बोध :मक हों या भूतात्मक। मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नक्षत्र, वायु, यादल. जल, नदी, पर्वत, प्रातःकाल, वर्षाकाल
आदि सभी विवेच्य तत्वमि अग्निमाले' के गायकाने एक अद्भुत रहस्य का अनुभव किया और उनमें उन्हें विश्व कल्याणका भाच विद्यमान मिला. जिस श्रानुभवके बाद वे प्रजापतिकी सृष्टिक किसी भी तत्त्वको छोटा या बड़ा, लाभदायक या व्यर्थ कनेको प्रस्तुत नहीं हुए। उसके द्वारा उनने एक विशाल यज्ञ सम्पादित होते पाया और यज्ञके सम्बन्ध पीछे कहा गया--
"यज्ञोपि तस्य जनतार्य कम्पति"। इस प्रवृत्तिको व्यक्त करते कहा गयानमो महदभ्यो नमो अभकम्यो नमो युवभ्योनम आशि