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________________ { ७०० > भोगोंका प्रश्न उठता । जीवोंका मोक्ष भी उद्देश्य नहीं हो सकता क्योंकि अब जीव थे ही नहीं तो फिर उनका बन्धन कहां था जिस को तोड़ने के लिए जगत रचत्ता। यह कहना भी सन्तोष जनक नहीं हैं कि जगत ईश्वरकी लीला है। निरुद्देश्य खेल ईश्वर के साथ अनमेल है। क्या वह एकाकी घबराता था जो इतना प्रपंच रचा गया। यह भी ईश्वरत्व कल्पनासे असंगत हैं। यह कहने से भी काम नहीं चलता कि ईश्वर की इच्छा अप्रतक्र्य हैं । इच्छा किसी ज्ञातव्य को जानने की किसी आमव्य के पाने की होती है। ईश्वर के लिये क्या अज्ञात और क्या अप्राप्त था। फिर जब उसकी इच्छा ऐसी ही हैं अकारण, निष्प्रयोजन, हैं तो अब उस पर कोई अंकुश तो लग नहीं गया है। वह किसी सृष्टि का संहार कर सकता है. आग को शीतल कर सकता है. कमल के वृन्दपर चन्द्र सूर्य उगा सकता है । अन्ध विश्वास चाहे सो कहे परन्तु किसी की बुद्धि यह स्वीकार नहीं करती कि ऐसा होगा । ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर का स्वाभाव ही अंकुश है और नियम वर्तित्व उसका स्वभाव है । जगतमें जो कुछ होरहा है यह नियमानुसार हो रहा है । इन सब नियमोंकी समष्टि को ऋत कहते हैं । ऋत ईश्वर का स्वभाव है । इस पर प्रश्न उठता है कि यह स्वभाव ईश्वर का सदा से है या जगत की सृष्टि के पीछे हुआ। यदि पीछे हुआ तो किमने दबाव डाला । वह कौन सी शक्ति है जो ईश्वर से भी बलवती है। यदि पहले से है जो इच्छा जगतकी उत्पत्ति का मूल थी वह ईश्वर के स्वभाव से अविरुद्ध रही होगी। अर्थात् जगत् उत्पन्न करना स्वभाव है । परन्तु जहाँ स्वभाव होता है वहाँ पर्याय रहते ही नहीं। ईश्वर की मसिसृक्षा उसके स्वभाव के अनुकूल होगी। पानी का स्वभाव नीचेकी श्रोरच्हना है, आपका स्वभाव गरमी है ईश्वरका स्वाभाव जगत उत्पन्न करना है । न पानी नीचे बहना छोड़ सकता
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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