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________________ ( ७५३ ) कहते हैं। अर्थात् जो करने न करनेमें तथा उल्टा करने में स्वतन्त्र होता है उसे कर्ता कहा जाता है। पाणिनी मुनिने इसी लिये कर्त्ता का लक्षण ( स्वतन्त्रः कर्त्ता ) किया है । परन्तु स्वभाव में स्वतन्त्रता नहीं रहती । अतः यह प्रश्न वैसा ही बना रहता है कि ईश्वर सृष्टि क्यों रचता है । स्वाभाविक इच्छा आस्तिकवाद में पं० गंगा प्रशाद जी ने ईश्वर की इच्छा को स्वाभाविक इच्छा लिखा है। तथा दृष्टान्त दिया है प्राणका अर्थात् जैसे मैं स्वभावसे प्राण लेता हूं। आदि। यह कथन ऐसा ही है जैसे किसने कहा कि मेरी माता बन्ध्या है। या मेरे मुखमें जीभ नहीं है. अथवा कोई कहे कि अभि शीतल है इसी प्रकारका यह शब्द है स्वाभाविक इच्छा | इन महानुभावों को इतना भी ज्ञान नहीं है कि इच्छा वैभाविक गुणों को कहते हैं। यदि इच्छा स्वाभाविक होती तो उसका मोक्ष अवस्था में भी सद्भाव पाया जाता | परन्तु न्याय वैशेषिक आदि सम्पूर्ण दर्शनों का इसमें एक मत है कि मोक्ष में इच्छा आदि नहीं रहते । इच्छा मनका गुण है। और मन है प्रकृतिका बना हुआ । अतः यह सिद्ध है कि इच्छा कहते हो वैभाविक गुण को हैं । तथा इच्छा अभिलाषा चाह एकार्थक वाची शब्द हैं। जिनका अर्थ है अप्राप्तकी आकांक्षा, अतः यह नियम है कि इच्छा सा अप्राप्त पदार्थ की ही होती है, अब यदि यह भी मान लें कि ईश्वरकी इच्छा स्वाभाविक होती है तब भी यह प्रश्न शेष रहता है कि उसको कौनसी वस्तु अप्राप्त थी जिसकी उसको इच्छा हुई। इसी प्रकार अन्य भी अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनको हम उसी प्रकरण में उठायेंगे | आपने भी प्राणोंका दृष्टान्त देकर इच्छाको वैभाविक सिद्ध कर दिया है। क्योंकि जीवात्मा प्राण भी वैभाविक
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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