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________________ ( ५७३ ) कारणका लक्षण नैयायिकों के यहाँ है श्रन्यथा सिद्धिशून्यस्य, नियतापूर्वं चतिता । कारणत्वं भवेत्तस्य, त्रैविध्यं परिकीर्तितम् || अर्थात् अन्यथा सिद्ध न होकर कार्य से नियत पूर्ववर्ती हो वह कारण है, यहाँ अन्यथा सिद्ध भी समझ लेना चाहिये अन्यथा सिद्ध उसको कहते हैं जिसका कार्यके साथ साक्षात संबंध न हो। इसके पाँच भेद हैं इनमें तीसरा अन्यथा सिद्ध विभु Ara career माना गया है। जैसे आकाश, काल, दिग आदि. ये कार्य के लिये कारण नहीं मानेजाते क्योंकि ये विभु और नित्य होनेसे सम्पूर्ण कार्यों के साथ इनका समान संबंध है। अतः ये मुख्य कारण नहीं माने जाते । कर्मफल प्राप्ति के लिये वैदिक दर्शनका पूर्व अथवा अष्ट को कारण मानते थे जैसाकि मीमांसाने अपूर्व और वैशेषिकने माना है, दोनोंका अर्थ एक ही है। अतः उसी अपूर्वको न्याय में ईश्वर कहा गया है। यही प्राचीन भारतीय दार्शनिकोंकी मान्यता थी । अथवा हो सकता है न्याय दर्शनकी रचना के समय अपूर्व के स्थान में ईश्वर की कल्पना अंकुरित हो गई हो और उसीका उन्होंने उल्लेख कर दिया हो। जो कुछ भी हो यह स्पष्ट है कि उस समय तक भी ईश्वरको सृष्टिकर्ताका स्थान प्राप्त नहीं हुआ था | यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त हैं । तथा यह भी सिद्ध है कि उस समय तक 'अपूर्व श्रष्ट और ईश्वर से एकार्थ वाचक शब्द थे । इनका अर्थ या कर्मफल प्रादादशक्ति । न कि द्रव्य विशेष । उसके पश्चात् इसी शक्तिको जो कि जड़ थी, एक चैतन्य द्रव्यका रूप दिया गया है। यह कार्य सूत्र 1
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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