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________________ ( ५०३ ) तथा उनकी परस्पर श्रुतियों का प्रबल खंडन किया जा रहा था ऐसे समय में यह आवश्यक था कि उन सबका उत्तर दिया जाये तथा परस्पर विरुद्ध श्र तियों का समन्वय किया जाये. यही कार्य बादरायण ने किया । हम पहले लिख आये हैं कि वैदिक कालमें तथा Befresh समय तक भी वर्तमान कर्ता ईश्वरका आविष्कार नहीं हुआ था सबसे प्रथम हम गीता में इस ईश्वरवाद की झलक देखते उसके पश्चात तो यह सिद्धान्त सर्वोपरि बनता चला गया ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने वालोंके लिए यह विचारणीय है किं किस प्रकार वैदिक अध्यात्मवाद ने उपनिषदोंमें शनैशनै एक ब्रह्मवादका रूप धारण किया तथा पुनःवहीं एक ब्रह्मवाद सिद्धान्त अर्थात् अद्वैतवाद बन गया | हमारा ढ विश्वास है कि मूल वेदान्त सूत्रों में, मायाबाद या अविद्यावाद परिणामवाद, विवर्तवाद आदिका उल्लेख तक भी नहीं है। विशिष्टाद्वैतादि भी उसका विषय नहीं है । इसके प्रथम सूत्र में ब्रह्म की जिज्ञासा की गई है. यहां ब्रह्म नाम आत्मा का है यह ब्रह्म न तो शङ्कर का मायावच्छिन है और न नवीन नैया 1 - raों का कर्त्ता ईश्वर है । जन्माद्यस्य यतः ॥ २ ॥ इससूत्र भी सृष्टि उत्पत्तिका कथन नहीं है। हमें आश्चर्य होता है कि सम्पूर्ण आचार्यों ने यहां सृष्टि की उत्पत्ति श्रादि अर्थ किस प्रकार किये हैं। यहां शब्द जन्मदिहैं न कि सृजन प्रलय आदि जन्म शब्दसृष्टि की उत्पत्ति के लिए न तो कहीं शास्त्रों में ही प्रयुक्त हुआ है तथा न लोकमें ही इस शब्दका इस अर्थ में व्यवहार होता है। अतः इसका सरल अर्थ है इसके जन्म आदि जिससे होते हैं वह आत्मा है। ईश्वर का खंडन तो स्वयं सूत्रकार ने ही प्रबल युक्तियों से किया है। जिसका वर्णन सप्रमाण आगे है।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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