SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहते हैं । (२) मूल प्रकृतिसे आगे बढ़ने पर जब हम दूसरी सीढ़ी पर पाते हैं तब महान नत्वका पता लगता है। यह महानतत्व प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है, इस लिये यह प्रकृतिकी विकृति या विकार है. और इसके बाद महान तत्वसे अहंकार निकलता है, अतएव 'महान' अहंकारकी प्रकृति अथवा मूल है। इस प्रकार महान अथवा बुद्धि, एक ओरसे यहंकारकी प्रकृति या मूल है, और दूसरी ओरसे, बह् मूल प्रकृति विकृति अथवा विकार है । इसोलिचे सांख्यों ने उसे प्रकृति विकृति' नामक वर्गमें रखा, और इसी न्यायके अनुसार अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राओंका समावेश भी 'प्रकृति विकृति' वर्ग ही में किया जाता है । जो तत्व अथवागुण म्बयं दुसरेसे उत्पन्न (विकृति) हो. और आगे वही स्वयं अन्य तत्वों का मूल भूत (प्रकति) होजावे, उसे 'प्रकृति विकृति' कहते हैं । इस वर्गके सात सल ये हैं महान, अहंकर और पञ्च तन्मात्रा (३) परन्तु पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियां मन और स्थूल पञ्च महाभूत. इन सोलह तत्वोंसे फिर और अन्य तत्वोंकी उत्पत्ति नहीं हुई । किन्तु ये स्वयं दूसरे तत्वोंसे प्रादुर्भत हुए हैं। अतएव, इन सोलह तत्वोंको प्रकृति विकृति' न कह कर केवल विकृति, अथवा विकार कहते हैं । (1) पुरुष न प्रक्रति है और न विकृति, यह स्वतन्त्र और उदासीन दृष्टा है । ईश्वर करणने इसप्रकार वर्गीकरण करके फिर उसका स्पष्टीकरण यों किया है-- मूल प्रकृतिर विकृतिः महदायाः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। अर्थात्-'यह मूल प्रतिक अविकृति है-श्रीन किसी का विकार नहीं है, मदादि सात (अर्थात महत. अहंकार, और पंचतन्माया) नवप्रकृति-विकृत है, और मन सहित ग्यारह इन्द्रियां
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy