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________________ । ५८२ । नहीं किन्तु दूसरे शब्दोंसे उस विषयके जैमिनि महर्षिके विचारोंको पूरा पूरा व्यक्त किया है। देखिये निम्नांकित सूत्रोंका शाङ्करभाष्य "सनादप्यविरोधम्" जैमिनिः (१।२।२६) "सम्पत्तेरिति जैमिनिस्तथाहि दर्शयति" (श२०३१) "अन्यार्थन्तु जैपिनिप्रश्नव्याख्यानाभ्यामपिचके ।” (१।४।१८) "परं जैपिनिर्मुख्यत्वाद" (४।३।१२) "ब्राह्मण जैमिनिरूपन्यासादिभ्यः" (४५) इत्यादि इत्यादि ऊपर कहा हो गया है कि प्राचीन समयमें ईश्वर मानने या न माननेसे आस्तिक-नास्तिक नहीं कहे जाते थे. किन्तु परलोक (पुनर्जन्म) मानने न माननेके कारण प्रास्तिक-नास्तिक शब्दका प्रयोग होता था ! जैसा ऊपर पाणिनी सूत्र (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः)केटीकाकारों की व्याख्पामें तथा कठोपनिषद् के मन्त्रों द्वारा दिखाया गया है, और स्मृति कालमें वेद मानने न माननेके कारण भी प्रास्तिक और नास्तिक शब्दका व्यवहार थार-ऐसा दिखाया गया है। पर दार्शनिक परिभाषामें तो असद्वादी और सवादी को ही उससे नास्तिक और आस्तिक कहनेकी प्रथा प्रतीत होती है जैसा उपर्युक्त पाणिनी सुत्रका यदि केवल सूत्रार्थ लिया जाय तो. अर्थ होगा कि जो 'अस्ति'-~सवादको माने वह आस्तिक और जो नास्ति'-अलद्वादको माने वह नास्तिक कहा जाता है : छान्दोग्य श्रुतिने भी कहा है। "सदेव सोम्येदमग्र अमीदेकमेवा द्वितीयम्" "तद्ध्येक ग्राहुरसदेवेदमग्रामीदे कमेवाद्वितीयम्' "तस्मादसतरसज्जायते इनि" ( छा० ६२११)
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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