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________________ ( १४८ ' astri मैं एक बहुत होऊँगा । लेकिन जो पहली अवस्था में दुख होता है वही दूसरी अवस्था चाहता है। ब्रह्मने एकरूप अवस्था से अनेक रूप होनेकी इच्छा की सं ब्रह्मो पहले क्या सुथा? जर दुध नहीं और ऐसा ही उसे कुतुहल हुआ तो जो पहले कम सुखी हो और बादमें कुतूहल करनेसे अधिक सुखा हो वह कुतूहल करना विचारता है ब्रह्म जन एक यत्रस्थ से अनेक अवस्था रूप हुआ तब उसके अधिक सुख कैसे संभव हो सकता है । और अगर वह पहले ही पूर्ण सुखी था तो अवस्था क्यों पलटता है ? विना प्रयोजनके तो कोई कुछ करता नहीं । दूसरे वह पहले भी सुखो था और इच्छानुसार कार्य होने पर भी सुखी होगा, लेकिन जब इच्छा हुई उस समय तो दुखी ही है यदि यह कहा जाय कि ब्रह्मके जिस समय इच्छा होती है, उसी समय कार्य होता है इसलिये दुखी नहीं होता यह भी ठंक नहीं है क्योंकि स्यूत कालकी अपेक्षा तो यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मकी इच्छा के समय ही काम होता है परन्तु सूक्ष्म कालकी अपेक्षा इच्छा और कार्यका होना एक साथ नहीं हो सकता | इच्छा तो तब ही होती है जब कार्य नहीं होता और जब कार्य होता है तब इच्छा नहीं होती इसलिये थोड़े समय तक तो इच्छा रही हो अतः दुखी अवश्य हुआ होगा। क्योंकि इच्छा ही दुःख है और दुःखका कोई स्वरूप नहीं । इसलिये ब्रह्मकी इच्छा की कल्पना करना मिथ्या है। ब्रह्मको मायाका खण्डन होती है तो ब्रह्मकी ही माया हुई कहलाया उसका शुद्धरूप कहाँ रहा। यदि यह कहा जाय कि इच्छा होते ही ब्रह्मको माया प्रकर और इस तरह यह मायात्रां दूसरी बात यह हैं कि ब्रह्मका
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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