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________________ होजाता है उसके लिए अन्य फल प्रदाताकी आवश्यकता नहीं है की तथा च मीमांसादर्शनके महानाचार्य श्रीकुमारिल भट्टने श्लोक दार्तिकमें मृष्टिकर्ता व कर्म फलदाताका अनेक प्रक्ल युक्तियों द्वारा लंडन किया है। जिनको हम पृ० ३६६ पर उधृत कर चुके हैं पाठक वहीं देखनेका कष्ट करें। मीमांसा पर विद्वानों की सम्मतियां भारतीय दर्शन शास्त्रका इतिहास में पं.देवराजजी लिखते हैं कि "वेदों में जहां ईश्वर की स्तुति है वह वास्तव में यज्ञों के अनुष्ठाता की प्रशंसा है। यज्ञ कर्राओं को तरह तरह के ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं । मीमांसक सृष्टि और प्रलय नहीं मानते । काल की किसी विशेष लम्बाई बीत जाने पर प्रलय और सृष्टि होती है. इस सिद्धान्त को मीमांसकों ने साहस पूर्वक ठुकरा दिया। जब सृष्टि का आदि ही नहीं है तो सृष्टि काकी कल्पना भी अनावश्यक है। कुमारिल का निश्चित मत है कि बिना उद्देश्य के प्रवृत्ति नहीं हो सकती, जगत के बनाने में ईश्वर का क्या प्रयोजन हो सकता है। उद्देश्य और प्रयोजन अपूर्णता के चिन्ह हैं. उद्देश्य वाला ईश्वर - अपूर्ण हो जायेगा। धर्म अधर्म के नियमन के लिये भी ईश्वर आवश्यक्ता नहीं है । यनकर्ता को फल प्राप्ति अपूर्व कराता है । आर्य समाजके प्रसिद्ध विद्वान, गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ के प्राचार्य प्रो. गोपाल जी ने मर्व दर्शनमीमांसा में लिखा है कि "काएट और मीमांसा भेद यह है कि मीमांसा समझता है कि जो पाल मिलना है वह एक नैतिक कर्भनियमके अनुसार है परन्तु काराः समझता है कि फल ईश्वर द्वारा मिलता है । ” पृ० ११२ यह आर्य सम्मानने भी यह स्वीकार कर लिया है कि--- मीमांसादर्शनके मतमें कर्म फल के लिए. ईश्वरकी श्रावश्यक्ता नहीं है।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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