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________________ आस्तिक और नास्तिक ( लेखक-श्रीगोपाल शास्त्री, दर्शनकेसरी, काशी विद्या पीठ) संस्कृतवाङ्मयके परिशीलनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राचीन समयमें ईश्वर मानने या न मानने वालों के लिये आस्तिक नास्तिक शब्दका प्रयोग नहीं था क्योंकि ईश्वर शब्दका प्रयोग परमेश्वर-अर्थमें इधर आकर बहुत अर्वाचीन समय से संस्कृत साहित्यमें प्रयुक्त पाया जाता है। यद्यपि यह इतिहासका विषय है तथापि इतना यहां कह देना अप्रासङ्गिक न होगा कि पौराणिक कालमें आकर शैव सिद्धान्त में शिबके लिये जो ईश्वर शब्दका प्रयोग था वही पौराणिक काल के बाद इधर आकर शैव धर्म द्वारा भारतीय संस्कृतमें प्रविष्ट हो गया है. मानैः पनगावः अर्थ में भी वन प्रालित दो गया है, अब कोई ऐसी पुस्तक नहीं जिसमें ईश्रर शब्दसे परमेश्वरका अर्थ न लिया गया हो । इसकी पुष्टी के लिये थोड़ेसे प्रमाणीका संग्रह करना उचित प्रतीत होता है। पाणिनीय व्याकरणका सूत्र है "अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः" उससे अस्ति-नास्ति शब्द सिद्धहोते हैं उसके टीका कारोंने-- 'अस्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः १ तथा 'नास्ति परलोक इत्येवं पतिर्यस्य स नास्तिक' । अर्थान् जो परलोक माने वह 'आस्तिक' और जो न माने वह 'मास्तिक' नकि जो ईश्वरको माने वह 'बास्तिक' और जो न माने वह 'नास्तिक। ऐसा ही अर्थ दार्शनिक दृष्टि वालों के अतिरिक्त सर्व साधारण जनताके लिये वेद-कालमें भी प्रसिद्ध था । यह कठोप
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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