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________________ ( ४७५ ) शब्दरागात् श्रोत्र मस्य जायते भावितात्मनः । रूपरागात् तथा चक्षुः प्राणे गन्ध जिघृ चथा || अर्थात् - "आत्मा को प्राणियों के शब्द सुनने की भावना हुई तब कान उत्पन्न हुआ. रूप पहचानने की इच्छा से आंख, और सूंघने की इच्छा से नाक उत्पन्न हुई" । परन्तु सांख्यों का यह कथन हैं, कि यद्यपि त्वचा का प्रादुर्भाव पहले होता हो. तथापि मूल प्रकृति में ही यदि भिन्न भिन्न इन्द्रियोंके उत्पन्न होने की शक्ति न हो, तो सजीव सृष्टि के अत्यन्त छोटे कीड़ों की त्वचा पर सूर्यप्रकाश का चाहे जितना आघात या संयोग होता रहे, तो भी उन्हें आँखें और वे भी शरीर के एक विशिष्ट भाग ही में कैसे प्राप्त हो सकती है ? डार्विनका सिद्धान्त सिर्फ यह आशय प्रगट करता है ? कि दो प्राणियों - एक चक्षु वाला और दूसरा चक्षु रहित निर्मित होने पर इस जड़ सृष्टि के कलह में चक्षु वाला अधिक समय टिक सकता है, और दूसरा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । परन्तु पश्चिमी आधिभौतिक सृष्टि - शास्त्रज्ञ इस बात का मूल कारण नहीं बतला सकते कि नेत्र आदि भिन्न २ इन्द्रियों की उत्पत्ति पहले हुई ही क्यों । सांख्योंका मत यह है, कि ये सब इन्द्रियां किसी एक ही मूल इन्द्रिय से क्रमशः उत्पन्न नहीं होती, किन्तु जब अहंकार के कारण प्रकृति में विविधिता श्रारम्भ होने लगती है. तब पहले उस अहंकार से ( पांच सूक्ष्म कर्मेन्द्रियां, और पांच सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियां और मन इनसब मिलाकर) ग्यारह भिन्न २ गुण ( शक्ति ) सत्र के सब एक साथ ( युगपत) स्वतंत्र होकर मूल प्रकृति में ही उत्पन्न होते हैं, और फिर उसके आगे स्थूल से न्द्रिय-सृष्टि उत्पन्न हुआ करती है। इन ग्यारह इन्द्रियों में से मन के बारे में पहले हो. छटवें प्रकरण में बतला दिया गया है. कि वह ज्ञानेन्द्रिय के साथ संकल्प-त्रिकपात्माक होता है. अर्थात ज्ञानेन्द्रियों के ग्रहण किये गये संस्कारों
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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