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________________ ( ४२५ ) तत्सदासीत् । अर्थ- वह असत् जगत् सत् यानी नाम रूप कार्यकी और अभिभावुक हुआ। तदाडं निवर्तत । अर्थ - श्रागे चल कर सह जगत अखे के रूपमें बना । तत्समभवत् । ; अंकुरी भूत बीज के समान क्रमसे कुछ थोड़ासा स्थूल बना तत्संवत्सस्य मात्रा मसयत । अर्थ- वह एक वर्ष पर्यन्त अंड रूपमें रहा । तभिरभिद्यत । अर्थ व अंडा एक वर्षके पश्चात् फूटा । ते श्राण्डकपाले रजतं च सुवर्णश्चाभवताम् । अर्थ-अंडे के दोनों कपालों में से एक चांदी और दूसरा सोने का बना । तद्यद रजवं सेयं पृथिवी । अर्थ-- उनमें ओ चांदीका था, उसकी पृथ्वी बनी 1 यत्सुवर्णं सा द्यौः । अर्थ-- जो कपाल सोनेका था उसका उर्ध्वलोक (स्वर्ग) बना । यज्जरा ते पर्वताः । अर्थ- जो गर्भका श्रेष्टन था उसके पर्वत बने । यदुवं स मेघो नीहारः । अर्थ - जो सूक्ष्म गर्भ परिवेष्टन था वह मेघ और तुषार बना ।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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