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साथ सूर्य को जलांजलि दे बंदना करने मिलन हैं। सूर्य का प्रत भी रवाना जाता है और छठ-बत भी सूर्य की ही एक पूजा है. क्योंकि सूर्योदय और सूर्यास्त के विम्बों को अध्य प्रदान करना उस प्रन की विशेषता है । अानन्दगिरि ने दिवाकर नामक एक
मोपासक के साथ दलिग में मनाएन शान पर शंकर के Thilp. शास्त्रार्थ का वर्णन किया है । इसमें शंकर के समय में सूर्योपासना
का प्रचलन सिद्ध होता है । वैदिक ग्रन्थों में भी सूर्यपूजा के बाधु. निक रूप से मिलते जुलते वर्णन मिलते हैं 1 कौपीत की ब्राह्मणा
पनिषद् में आदित्य ब्रह्म की उपासनाके अलावा दीर्घायु सम्पादक :: सूर्य की पूजा का वर्णन है। तैत्तिरीय अारण्यक में मंत्र के साथ
सूर्य को जल देने और "अमौ आदित्यो ब्रह्म' कहते उपासक के शिर के चतुर्दक जल फेंकने का विधान है। आश्वलायन गृह्मसूत्र में भार में चक्का निकल श्राने तक और सांझ का चक्का डूब कर तारे चमक उठने वक गायत्री मन्त्रोच्चारण करना लिखा है, और पनयन संस्कार के समय ब्रह्मधर्म लक्षण संयुक्त होने पर बालक को सूर्य की ओर देखने का विधान है। खदिर गृह्यसूत्र में लिखा है कि धन और की त के लिये सूर्य की पूजा की जाय । फिर ईसा की ७ वीं शताब्दी मक प्रयाग से सीलान तक के भिन्न - स्थानों में सूर्योपासना के प्रचारके प्रबल प्रमागा प्राप्त होते हैं जिनके अंधार पर १३ वीं शताब्दी तक मूर्यपूजा का प्रनार स्वीकार करना पड़ता है। .. ईसा के बाद ७ वी शताब्दी में सूर्योपासना को गज धम्म सम्मान प्राप्त होने के प्रमागा मिलन हैं. और इस काग्गा उसके विशेष प्रचार को भी सम्भावना प्रतीत होनी है । इनके तीन मुख्य प्रमाण हैं। पहला प्रमाया है. हर्ष वर्द्धन के पिता प्रभाकर बर्दन घे पूर्वजों का परगादित्यभक्त हाना, जो सोनपाट की कुछ ताम्रमुद्रा,
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