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________________ ( ५२६ ) सत्यता पाई जाती है, क्योंकि उक्त प्रकार से कार्य का मिथ्यात्व सिद्ध है, और प्रत्यक्ष मी सन्मात्र की ही प्रतीति बतलाता है. यदि विरोध माना भी जाय तो श्रामोस होनेके कारण जिसमें दोष की सम्भावना नहीं की जासकसी ऐसा जो प्रमाण उसको अपने स्वरूप की सिद्धि के लिए प्रत्यक्षादिकों की आवश्यकता होने पर अपने विषय में प्रमाण को उत्पन्न करने के लिए निराकांक्ष होनेके कारण शास्त्र प्रमाण वलिष्ट है. इस लिए कारण ब्रह्म से भिन्न सब मिया है. यदि ऐसा कहो कि प्रपञ्च मिथ्या होने के कारण जीय भी मिथ्या है, सो ठीक नहीं क्योंकि ब्रह्म ही सब शरीर में जीव भाव को अनुभव कर रहा है, जैसा कि "प्रा ने ही जीव हो कर प्रवेश किया "एक देव ही सब तत्वों में छिपा हुआ है उससे भिन्न अन्य कोई द्रष्टा नहीं" इत्यादि श्रुतियों से ब्रह्म का ही जीव बन जाना पाया जाता है, ननु यदि ब्रह्म ही सब शरीरों में जीव भाब को अनुभव कर रहा है तो जैसे एक शरीर वाले जीव को यह प्रतीति होती है कि मेरे पांव में पीड़ा सिरमें नहीं। इस प्रकार सब शरीरों के सुःख दुःख का ज्ञान होना चाहिए, और अाके ही सब स्थानोंमें जीव होनेसे बद्ध. मुक्त, शिध्य गुरु. झानी अज्ञानी आदिकों की व्यवस्था न रहेगी. क्योंकि सब जीव ब्रह्वा का स्वरूप है, फिर कौन बद्ध कौन मुक्त कहा जाय ? इस प्रश्न का कई एक अद्वैतवादी यह उत्तर देते हैं कि ब्रह्म के प्रतिविम्बरप जीवों के सुखित्व दुःखित्वादि धर्म है जैमाकि एक मुख के प्रतिविम्षोंका लोटापन बड़ापन, मलीनता तथा स्थकछता आदि मणि कृपाणादि श से प्रतीत होते हैं, ननु "इस जीवरूप आत्म द्वारा प्रवेश करके नाम रूप को करू" इत्यादि श्रुतियों से ग्रह कथन कर आये हैं कि जीय ब्रा से भिन्न है. फिर उपाधि भेद से व्यवस्था कैसे हो सकेगी?
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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