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________________ { ७५७ ) अर्थात् निमित्त कार के लिए शरीरका होना भी आवश्यक है । इस बातको पं गंगाप्रसाद जो ने आस्तिकवाद में स्वीकार कर लिया है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो गया। इन सब प्रमाणों से कत्तोका लक्षण यह बना कि कारणमें व्यापक न होता हुआ प्रयोजन सहित ज्ञान पूर्वक इच्छा द्वारा शारिरिक क्रिया से कार्यको सिद्ध करने वाला कर्त्ता कहलाता है। यह लक्षण यदि ईश्वर में घट जाये तभी उसको कर्त्ता माना जा सकता है । परन्तु कर्त्तावादी न तो ईश्वरका कोई प्रयोजन ही सिद्ध कर सकते हैं, और न वह सर्व व्यापक होनेसे क्रिया ही कर सकता हैं । तथा न उसके शरीर ही माना जाता है । एवं न उसमें इच्छा ही का सद्भाव है। जब यह सब उसमें नहीं है तो वह कर्त्ता भी नहीं हो सकता क्योंकि कन चीजों होना है । यदि इनके बिना भी कर्त्ता हो सकता है तो उनको कर्त्ताका लक्षण ही अन्य करना पड़ेगा। परन्तु कर्त्ताका लक्षण जो हमने ऊपर दिया है उसके सिवा कुछ हो ही नहीं सकता । अतः कत्त वादियोंका कर्तव्य है कि या तो वे ईश्वर में भी शरीर आदि का अस्तित्व मानें अथवा कर्त्ताका लक्षण ऐसा करें जो इस कल्पित ईश्वर में चरितार्थ हो सके । अन्यथा ईश्वरको कर्त्ता माननेका नाम भी न लें। अब हम आस्तिकवादको युक्तियों पर विचार करते हैं | जो उन्होंने अपने पक्ष की सिद्धिमें दी है। आप लिखत है कि • " परन्तु याद रखना चाहिये कि जब संसारकी क्रियायोंके दो वर्ग हो गये एक 'प्राणिकृत' जो "सिद्धकोटि" में है। दूसरे अ सकृत' जो 'साध्यकोटि में है। तो हिटिक वस्तुएं तो दृष्टान्त का काम दे सकती हैं, परन्तु साध्य कोटिकी नहीं। किसी पक्षको यह अधिकार नहीं है कि साध्यकोटिकी किसी वस्तु को दृष्टान्तके रूपमें उपस्थित कर सके । " आदि
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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