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( ३८२ ) पर उत्पन्न हुए हैं, उन्हें पिछला हाल क्या मालूम ? (गीता १०० देखो)। परन्तु हिरण्यगर्भ देवताओं से भी बहुत प्राचीन और श्रेष्ठ है और ऋग्वे ही कहा है,
जिनमें बदला ही"भूतस्य जातः पतिरेक आसीत" (ऋ० १०।१२।१)
सारी सृष्टि का पति' अर्थान राजा या अध्यक्ष था। फिर उसे यह बात का कर मालूम न होगी ? और य द उसे मालूम होगी तो फिर कोई पूछ सकता है, कि इस बातको दुर्बोध या अगम्य क्यों कहते हो ? अतण्य उस सूक्त के ऋषि ने पहिले तो उस प्रश्न का औपचारिक उत्सर दिया है. हाँ. वह इस बात को जानता होगा !" परन्तु अपनी बुद्धि में ब्रह्म देव के भी-ज्ञान-सागर की थाह लेने वाले इस ऋषि ने आश्चर्य से सशंक हो अन्त में तुरन्त कह दिया है. कि "अथवा' म भी जानता हो ? कौन कह सकता है ? क्यों कि वह भी सत् की श्रेणी में है, इस लिये परम' कहलाने पर भी 'आकाश' ही में रहने वाले जगत् के इस अध्यक्ष को सत्. असत्, श्राकाश और जल के भी पूर्व की बातों का नाम निश्चित रूपमे कैसे हो सकता है ?" परन्तु यद्यपि यह बात समझ में नहीं आती. कि एक असन्' अर्थात् अव्यक्त और निर्गुण द्रव्य ही के साथ विविध काम-रूपात्मक सत् का अर्थात् मूल प्रकृति का सम्बन्ध कैसे हो गया. तथापि मूल ब्रह्म के एकत्व के विषय में ऋषि ने अपने अद्वत-भाष को डिगने नहीं दिया है, ? यह इस बातका एक उत्तम उदाहरण है, कि सात्विक श्रद्धा और निर्मल प्रतिभा के बल पर मनुष्य की बुद्धि अचिन्त्य वस्तुओं के सघन बन में सिंह के समान निर्भय होकर कसे निश्चय किया करती है. और वहां की श्रतस्य धातों का यथा शक्ति कैसे निश्चय किया करती है ? यह सचमुच हो आश्चर्य तथा गौरव की बात है कि ऐसा मुक्त अश्वेद में पाया