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सप्तायः स्वपतो लोक मीयुस्तत्र जागृतो यमजौं सत्रसदौ च देवौ । निरुक्त देवत कांड १२३३७
निरुक्तकार ने यह मन्त्र यजुर्वेद अध्याय ३४ ५५ का किया है। जिसका अर्थ यह है कि इस मनुष्य शरीर के अन्दर सात प्राण तथा पाँच इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि सात ऋषि विद्यमान हैं । ये सात प्राण इस शरीर की निरन्तर रक्षा करते हैं । तथा जब ये इन्द्रिये विज्ञानात्मा में पहुंचती हैं तब अर्थात् स्वप्नावस्था में भी प्राणापानरूपी देव जागते रहते हैं। इत्यादि अनेक स्थानों पर इस मनुष्य शरीर का माहात्म्य
अग्नि
निर्वै सर्वमाद्यम् || तां० २५ । ९ । ३ मिथुनस्य कर्त्ता ॥ ० १ । ७ । २ । ३ अयं वा न च क्षत्रं च । शतपथ, ६२६|३|१५ पृथ्वीपते । तै० ३ । ११ । ४ । १
धाता । तै० । ३ । ३ । १० । २
श्रयमग्निः सर्वचित् । शत० ९ । २ । १ । ८
अर्थात् श्रभि आदि पुरुष हैं। तथा श्रभि मिथुन जोड़ेका बनाने वाला है। अर्थात् उसने जबसे प्रथम विवाह प्रथा को प्रच लित किया । ब्राह्मण और क्षत्री श्रमि हैं। पृथिवी पति का नाम अभि है। अर्थात् पूर्व समय में राजा को तथा विद्वान् तपस्वी को मिकी उपाधि दी जाती थी। अभि सर्वज्ञ है, धाता, ब्रह्मा आदि भी उसी के नाम हैं ।