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________________ इत्यादि श्रुतियोंसे प्रारंभमें श्रात्मका उपदेश है। तथा तीसरी श्रुनिमें कहा है कि न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति न मनो न विमो न विजानिमः || ३ || अर्थात --उस ब्रह्म तक नया जा सकता है नया और न मनकी ही पहुंच है। श्राचार्य कहते हैं क्रि—वह बुद्धि गभ्य होनेसे हम उसको नहीं जानते तथा नहीं कुछ कह मकने है। जो कुछ अनुमान या शब्द प्रमाण द्वारा जाना गया है उसीको कहा जाता है । यहाँ शंका उत्पन्न हुई कि-आत्मा किस प्रकार ब्रह्म हो सकता है, क्योंकि आत्मा तो कर्मादिमें लिप्त संसारी जीवको कहते हैं। यह कम से अथवा उपासनासे स्वर्गकी अथवा प्रजापति इन्द्र श्रादि देवत्वकी कामना वाला है। अतः उपास्य और उपासना करने वाला एक नहीं होसकता। इस लिये ब्रह्म अात्मासे भिन्न है। श्री शंकराचार्यने इस शंकाको निम्न शब्दोंमें लिखा है। "कथं वान्मा ब्रह्म । अात्मा हि नामाधिकृतः कर्मण्युपासने च संसारी कोपासनं वा साधनमनुष्ठाय देवान्स्वर्ग वा प्राप्तुमिच्छति । तत तस्मादन्य उपास्यो विष्णुरीश्वर इन्द्रः प्राणो का ब्रह्म भवितुमर्हति न त्वामा लोक प्रत्यय· विरोधात् । यथान्ये तार्किका ईश्वरादन्य आत्मा इत्याचक्षते ।" मैंवं शंकिष्ठाः । इस शंकाका स्वयं उपनिषदूने उत्तर दिया है। (उत्तर) ऐसी शंका मन करो, क्योंकि अनि कहती है कि
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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