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। तस्मिन् हिरण्यं ये कोशे व्यरे त्रिप्रतिष्ठते । तस्मिन्यवपात्मन् वत्ततद्वै ब्रह्म विदो विदुः ॥ ३२ ॥
उस तीन अरों वाले. तीन सहारों वाले, सुनहरी कोशमें जो आत्मा (मन) सहित यश निवास करता है उसको आत्मज्ञानी ही जानते हैं। पं. सातवलेकरजीने वेदपरिचय' के तीसरे भागमें इस सूक्तकी सुन्दर व्याखाकी है। यहाँ पास्माका तथा उसके शरीरस्थ कोशीका मनोरम वर्णन है । पं. जी लिखते है कि"इनमें जो हृदयकोश है, उस कोशमें अात्मन्यत्तयक्ष" रहता है, इस यक्षको ब्रह्म ज्ञानी ही जानते हैं। यही यक्ष फेनोपनिषद्में है
और देवी भागयतकी कथामें भी है। यह यक्ष ही सवका प्रेरक है यह "यात्मवान्यन" है । यह सब इन्द्रियों और प्राणीको प्रेरणा करके सबसे कार्य कराता है। यह अन्य देवोंका अधिदेव है, शरीरमें जो देवोंके अंश हैं उन सब देवोंको नियंत्रण करने वाला यही श्रात्मदेव है। यही आत्माराम है। इस रामकी यह दिव्यनगरी अयोध्या नामसे सुप्रसिद्ध है।" यही मण्डुकोपनिषद में है।
हिरणाये परेकोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । तछुळं ज्योतिषां ज्योतिरसंघदात्म विदो विदुः । शराब
व निर्मल और कलाहीन ब्रह्म (अ.त्मा) हिरण्मय ज्योतिर्मय (बुद्धि विज्ञान प्रकाश) इति श्री शंकराचार्य-- __अर्थान-बुद्धिारी विज्ञानमय कोशमें विद्यमान है ! यह श्रात्मा शुद्ध और सब ज्योतियोंमें एक सर्व श्रेष्ठ ज्योति है। उसे
आत्मज्ञानी ही जानते हैं । इस प्रकार वै दक साहित्यमें हिरण्यगर्भ. हिरण्यकोश आदि शब्दों द्वारा आत्माका वर्णन किया
गया है।