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________________ २६ ) लापासे हम तुम्हारा हवन करते हैं, यह हमें मिले । हम थानाधि पति हों।" .. हिरण्यगर्भ रहस्य-"मृष्टिकी आदिमें एक हिरण्यगर्भ था। यह हिरण्यगर्भ और कुछ नहीं. एक परम विशाल 'नीहारिका' था जो अपने अक्ष पर बड़ी तेजीसे घूमता था । जिस प्रकार प्रातिशबाजी की जाती हुई यानिकी निगाविस हद इटहर निकलती हैं। और उसी घरतीके आस-पास घूमने लगती है, उसी प्रकार उस घूमते हुये आदि हिरण्यगर्भसे किरोड़ों सूर्य ठूट- टूट कर निकले और उसके आस पास घूमने लगे और फिर इसी विधिसे प्रत्येक सूर्यसे और और टुकड़े होकर उनके सौर चक बने । हमारा सौर चक्र (अर्थात सूर्यक साथ आठों-ग्रही आदिका झंड) शोरी नामक एक बहुत बड़े सूर्यकी ओर बड़ी तीघ्रगतिसे भागा चला जा रहा है।" ( कल्याणके शिवांकसे । ) तथा पं० जयदेवजी विदालंकारने यजुर्वेद अ० १३ में इस मन्त्र के माध्यमें लिखा है कि राष्ट्र के पक्ष में--(हिरण्यगर्भः) सुवर्णकांश का ग्रहण करने बाला उसका स्वामी समस्त राष्ट्रके उत्पन्न प्राणियोंका एक मात्र पालक है। वही ( पृथिवीम ) पृथिवीस्थ नारियों और ( द्याम् ) और सूर्यके समान पुरुषों को भो पालता है। उसी प्रजापति राजा की हम (विषा) अन्न और अाझा पालन द्वारा सेवा करें।" ____ यहां हिरण्यगर्भक अर्थ सुवर्णमय कोशके स्वामी, राजा, किया है । तथा पृथिवी' और 'घाम' के जो विलक्षण अर्ध किये हैं, उसकी समालोचना करके हम व्यर्थ समय नहीं होना चाहते। सथा अथर्ववेद कां० १०में केन सूक्त है उसमें निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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