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________________ ( ६५ ) १३ । २ यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः ।। वें यज्ञो मैं मैत्रावरुणः || को० मनो व यज्ञस्य मंत्रा वरुणः || ऐ० २५ २६ २८ विराट ने यज्ञः ॥ ०१ । १ । १ । २२ ॥ स्वर्ग लोको यज्ञः ॥ कौ० १४ । १ ० ३ । ६ । ५ । ५ ॥ | · . अर्थात् — ऋत इस यज्ञ से उत्पन्न हुआ है। तथा वसु प्रजापति, सविता, विष्णु आदि सब देवता स्वरूप यज्ञ ही है। यज्ञ ही देवों की आत्मा तथा वहीं अन्न है। इस यश से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, यही संसार को उत्पन्न करता है। यदि आदि सब महिमा यज्ञों की कथन की गई है। इस प्रकार शनैः शनैः याज्ञिक ने देवनाओं का प्रभाव कम करना आरम्भ किया तथा बाद में उनके अस्तित्व से भी इन्कार कर दिया और मन्त्रों के शब्दों को ही देवता मानने लगे। इस प्रकार यज्ञोंका विस्तार होने लगा और वह इनता बढ़ा कि सम्पूर्ण भारत में घर घर इसी का साम्राज्य दिखाई देता था । लाखों मूक पशुओंका इस यज्ञ में होगा जाने लगा यहीं तक नहीं अपितु नरमेध यज्ञ में जीवित मनुष्यों का भी बलिदान प्रारम्भ हुआ तथा शराब आदि का भी भयानक प्रचार हो गया । बस मांस और शराब का जो परिणाम होना था वह हुआ और संसार एक पापों का केन्द्र बन गया । वाममार्ग आदि अनेक प्रकार के सम्प्रदायों का जन्म हुआ और धर्म के नाम पर खुले आम पाप का एकाधिपत्य हो गया। बस संसार इन यज्ञों से बिलबिला उठा और धीरे २ यज्ञों के प्रति घर बढ़ने लगी और इसके विरोध में प्रचार भी आरम्भ हो गया। यज्ञों का प्रथम प्रचारक या आविष्कर्ता अथव ऋषि था।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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