SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 703
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया करें। ऐसा करने से जैनधर्म को समझने में बहुत सुविधा हो जावेगी । यहां भी हम यही कह देना चाहते हैं कि जैनशास्त्र संस्कार को ही नहीं, अपितु संस्कार को भी कम का फल मानते हैं। अर्थात्-कर्म रूपी क्रिया की अनेक प्रतिक्रियाओं में से संस्कार भी एक प्रकारकी प्रतिक्रिया है। इसको आप भी स्वीकार करते हैं। रह गया कर्म का अन्त ! इसके लिये हम इतना ही कहते हैं कि दुनिया में आज तक जितनी भाषा प्रचलित हुई है, उनमें से किसी में भी वस्तु के सार को वस्तु का अन्त नहीं माना है अगर आपको यह नई परिभाषा गढ़नी पड़ी हो तो इसे स्पष्ट करना चाहिये था । यदि अन्त से आपका अभिप्राय नाशसे है शो आप भारी भूल में हैं। ये संस्कार कर्मों का अन्त नहीं है, इसका शान तो आपको सत्यार्थप्रकाशसे ही होजाता ! संस्कारोंकी महिमा के लिये स्वामी जी को "संस्कार-विधि" बनानी पड़ी। इन संस्कारों से ही आत्मा उन्नत होतीहै और कुसंस्कारोंसे ही आत्मा अधोगति को चली जाती है। मनुस्मृति के अनुसार भी (जिसका स्वामीजी ने सत्यार्थप्रकाश के हवें समुल्लास में प्रमाण-रूप से उपस्थिति किया है,) ये संस्कार ही आत्मा को जन्मान्तर में नीच या उंच योनियों में ले जाते हैं। अापके कथनानुसार भी संस्कार वे ही कम हैं जो सार रूप से सूक्ष्म-शरीर में जा बैठते हैं, अतः संस्कारों को कम का अन्त कहना-कमफिलासफी से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना है। .. कर्म और उसका फल जिस प्रकार आपने कम का अंत समझनेमें भूल की उसी प्रकार कर्म के फल के संबन्धमें मी भारी भूल की है। श्रास्तिक वाद के पृष्ट ३०८ में श्राप लिखते हैं कि “इष्टको सुरक्षित रखने के लिये सुख और अनिष्टको धोने के लिए दुःख होता है यही कम
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy