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________________ ( ४२३ ) सृष्टिकी प्रारंभावस्था के मतभेद जिस प्रकार प्रलयावस्थाके विषयमें मतभेद बताये गये हैं उसी प्रकार मृष्टिकी प्रारम्भावस्थाक विषयमें भी वेदमें मतभेद हैं यथा देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत । तदाशा अन्यजायन्त तदुत्तानपदस्परि ।। (ऋ०१०१७।३) अर्थ-- देवताओं की सृष्टि के पूर्व प्रथान सृष्टि के प्रारम्भ में असद् से सद् उत्पन्न हुश्रा , उसके बाद दिशाएं उत्पन्न हुई । और तत्पश्चात् उत्तान पद = वृक्ष आदि उत्पन्न हुए। पादो वश राजापन । अदितेदक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि ॥ (ऋ०१०७२।४ अर्थ-- पृची ने वृक्ष उत्पन्न कि 'भव' से दिशा पैदा हुई अदित से दक्ष और दक्षसे पुनः अदिति उत्पन्न हुई। अदितिर्वाजनिष्ट दक्ष ! या दुहिता सव ।। ता देवा अन्वजायन्तभद्रा अमृतबन्धवः।(ऋ०१०।७२१५). अर्थ-हे दक्ष : तरी पुत्री अदितिने भद्र = स्तुत्य और मृत्यु के बन्धनसे रहित देवोंको जन्म दिया. (अदित के अपत्य = पुत्र है इसलिये आदित्य यानी) देव कहलाते हैं। यद्देवा प्रदासलिले सुसंख्धा अतिष्ठत । अत्राचोनृत्यतामिव तीवो रेणुरपायत ॥(ऋ०१०७२।६) अर्थ- हे देयो? जब तुम उत्पन्न हुए तब पानी में नृत्य करते हुए तुम्हारा एक तीत्र रेणु (अंश) अंतरिक्ष में गया, (तात्पर्य यह कि वहीं रेशु सूर्य बन गया)।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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