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६१६
६१६
६२०
१२०
६२४
६३६
६२४
६३४
L
६३५
६३५
पंकि
१८
१८
पूर्ण
१६
१०
१२
ܘܢ
२४
६३६
६३६
६३६
७
६३६
१३
६४० २२
६४७
१
६५०
६५०
६५०
६५१
६५१ १८
६५७ २२
६५८ २५
પ
r
( ३२ )
शह
विदियां
ज्योतिष्क
विकास
आवश्कता
घाटातो होता है उपाधि सुशोभित,
पत्र
कामred
प्रभु
प्रभुः
लोक मान्य
लोकमान्य
जाता में
आता है
बृहदान्यकोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद्
- कामभिर्जि
निषक्तमच
तमेवेति
सन्ताधान
अन्थ
चितमन
पढ़
तो
को कल्पान्तरों में
सुकी हूँ
शुद्ध
विंदियां
ज्योतिष
विकाश
मलाइयां कि
उसके
पच्छ्रम
आवश्यकता
घाटा होता है तो उपाधि से सुशोभित
कामयते
यत्र
सकाममिर्जायते
निवक्तव
तमैचेवि
सत्तावान
अन्य
चित्तमन (चिंतन)
वे तो
को जो कल्पान्तरोंमें
चुका हूँ
पड़
भलाइयां जो कि
उसको
पश्चिम
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