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________________ ( ५६ ) चाहर है। इसलिये अग्नि, वायु, सूर्य, सविता, मित्र, वरुण. नावाप्रथिवी, अश्वि, इन्द्र, गद्र, ब्रह्मणस्पति, वाचस्पति, वास्तोष्पति. क्षेत्रस्यपत्ति इत्यादि परिमित रूपोंमें उसकी महिमा वेदमें कहीं गईहै. और स्तुति नमस्कार और पूजा द्वारा उन सब रूपोंके साथ गहरा सम्बन ना करनेका जाने के साथ सम्बन्ध को आवश्यकता इसलिये भी है कि वे भिन्न भिन्न गुणों वाले हैं और सब मिल कर परमात्मा के गुणों को प्रकट करते हैं. अतएव पूर्णता को प्रात्रि के लिये और प्रत्येक निर्बलता को जीतने के लिये सबके साथ अलग अलग सम्बन्ध स्थापन करने की आवश्यकता है । जैसे शूरवीरता, अभयता और बलको प्राप्ति के लिये इन्द्रके माथ । सृष्टि नियमके अनुकूल अपना आचरण धनाने के लिये और पापोंसे बचने के लिये वरुणके साथ। सम्यगज्ञान ब्रह्मतेज और भक्ति भाव बढ़ानेके लिये अनिके साथ । इसी प्रकार एक एक गुणको अलग अलग पराकाष्ठा तक पहुंचानेके लिये उस शक्तिके अधिपनिके साथ सम्बन्ध स्थापन करनेकी आवश्यकता है। इससे सब प्रकार को त्रुटियाँ दूर होकर सब अंशों में पूर्णता पाती है. और यह सारा विश्व परमात्माकी महमासे भरा हुश्रा अनुभव होने लगता है। तब उसका श्रात्मा स्वतण्य उस स्वरूपको देखना चाहता है जिसकी महिमामे यह सारा विश्व महिमावाला बन रहा है। अब वह पूर्ण अधिकारी है उम शुद्ध स्वरूपको सान्नान करनेका इसलिये श्रव उसको दोनों रूपोंके देखनेमें स्वतन्त्रता होती हैं । श्यामको देखता हुत्रा शवलका देखता है और शक्लका माक्षात् करता हुआ श्यामको साक्षात् करता है। ऐसा साक्षान करते हुए ऋपिने कहा है_श्यामाच्छवलं अपये शलारक्ष्यामं प्रपद्य अश्व एवं रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इच राहोर्मुखान् प्रमुच्यधूत्वा
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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