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________________ ( ५६० ) दोष आते हैं वे सत्र दोष यहां ब्रह्म सृष्टिमें भी ज्योंके त्यों उपस्थित होंगे उनका परिहार कैसे हो सकेगा ? भाष्यकारका श्राशय क्या है ? पाठक ऊपर के उद्धरणोंसे बहुत कुछ समझ गये होंगे ? भाष्यकार के माने हुए ईश्वर में बुद्धि संकल्प आदि होने के कारण संकल्पसे सृष्टिजनक धर्मरूप कर्म उत्पन्न होता है और उसके द्वारा सृष्टि निर्माणका कार्य सम्भव बनाया जाता है । परन्तु ब्रह्ममें तो बुद्धि संकल्प आदि कुछ भी न होनेसे सृष्टिजनक कर्म नहीं उत्पन्न हो पाता है। फलतः सृष्टि निर्माण भी सदा सर्वथा असंभावित ही बना रहता है। तथा ब्रह्मको जानने के लिए कोई प्रमाण भी नहीं है अतः प्रमारण बहि त ब्रह्मके कौन बुद्धिशाली मान सकता हूँ ? इस प्रकार ब्रह्मवाद को पराजित करनेके लिए ईश्वरवादका विस्तार शुरू हुआ। भाध्य कारकी तरफसे ईश्वरवाद पर इस भांति स्वीकार सचक छाप लग जानेसे न्याय कुसुमांजलि, न्याय वार्तिक, न्यायमञ्जरी, न्याय कंदली आदि अनेकानेक न्याय ग्रन्थोंमें ईश्वरवाद अधिकाधिक पल्लवित होता चला गया। आपके इस कथनको तुष्टि सर्व दर्शनसंग्रह भी होती है। वहां लिखा है कि- एवं च प्रतितंत्र सिद्धान्त पिपरमेश्वरप्रामाण्यं संगृहीतं भवति । अर्थात - इस प्रकार प्रतितंत्र सिद्धान्त द्वारा सिद्ध परमेश्वर संग्रहीत होता है । वन दिग्दर्शनमें राहुलजी लिखते हैं कि i. i अपादने ईश्वरको अपने ११ प्रमेयों नहीं गिना है । (?) और न कहीं उन्होंने साफ कहा है कि ईश्वरको भी वह आत्मा के अन्तरगत मानते हैं । ऊपर जो मनको आत्माका साधन कहा है
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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