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________________ (८०८ ) और जो दुःख प्रयत्न करने में होता है यह दोनों ही अन्त में श्रानन्द को प्राप्त कराने वाले होते हैं । शायद सुख के अनुभव के लिय दुःस्व का अनुभव आवश्यक है। शायद प्राणियों के शरीर ही ऐसे बने हैं कि यदि वह दुःखका अनुभव न करले तो सुखका अनुवभ भी न कर सकते।" आदि, ___ समीक्षा योग दर्शन के प्राणता पतंजली मुनि कहते हैं कि सर्वमेव दुःखं विवेकिनः अर्थान विवेकी पुरुष के लिये सांसारिक सुख भी दुखरूप ही है । क्यों कि ये वास्तव में सुख नहीं हैं. अपितु सुखाभास है । इसी प्रकार संसार के सभी महा पुरुषों ने संसार को दुःख रूप बताया है। परन्तु श्राप कहते हैं कि संसार में दुःख आटे में नमकके बराबर है। इसके स्थान में यदि यह कहते तो ठीक था कि संसार में सुख आदे में नमक के बराबर भी नहीं है । यदि संसार में किंचित् भी सुख होता तो शास्त्रों में संसार त्याग का उपदेश और मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न ही व्यर्थ था | अब प्रश्न रह गयाकि दुख सुखका कारण है, तथा उन्नति विकास आदि का कारण है। यह तो तब ठीक समझा जाता जब उन्नति प्राप्त व्यक्तियों को दुःख न होता क्यों कि जिस कार्यके लिये दुःख दिया गया उस कार्य के होने पर दुःख की, समाप्ति होनी चाहिये । यदि कहा कि अभी तक विकास, और उन्नति पूरी नहीं हुई है, तो इसको काई सीमा है या नहीं है । तथा एक प्रश्न यह भी है कि उन्नति का लक्षण क्या है, और इसका उद्देश्य क्या है । तथा ईश्वर ने इनकी उन्नतिका भार अपने ऊपर क्यों लाद लिया है ? यदि उन्नति करने का भार लिया ही था तो अनादि कालसे आज तक वह जीवों की उन्नति क्यों नहीं कर सका। अब आगे वह इस कार्य को कर सकेगा इसमें क्या प्रमाण है। अतः ऐसे अयोग्य व्यक्ति का कर्तव्य . हैं कि इस उसरदायित्व से परांङमुख हो जाये यदि दुःख कर्मों का
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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