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________________ अतः हम भी यहाँ विस्तारभयसे इन प्रश्नोंको नहीं उठाते। परन्तु इतना तो यहाँ स्पष्ट है कि यह जीवात्माका कथन है । फिर घम कैसे. क्यों, और काजी चल गा' ह रहाका पनगा नहीं है। इससे आगे चलकर इस विराट पुरुषसे सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न कराई गई है। उसके विषयमें आर्यसमाजके सुयोग्य विद्वान चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेवजी विद्यालंकार लिखते हैं कि "किसी प्रजापत्तिके शरीरके मुख श्रादि अवयवोंसे गर्भसे बालकके समान ब्राह्मण श्रादि वणों के उत्पन्न होनेका मत असंभव होनेसे अप्रमाणित है। यह केवल समाजरूप प्रजापति पुरुष जिसकी हजारों आँखों और पैरों आदिका प्रथम मन्त्रमें वर्णन किया है उसके ही समाजमय अंगोंका वर्णन किया गया है।" (अथर्वभाब्य ) - यहाँ पंकी से । - AMERः । शन प्रत्यक्ष खंडन कर दिया है। सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिध कृताः । . देवा यद् यज्ञं तन्वाना अवधनन्पुरुपंपशुम् ॥ १५ ॥ इस मन्त्रका भाष्य करते हुये स्वामीजी लिखते हैं कि "हे मनुष्यों ! जिस मानुष यज्ञको विस्तृत करते हुये विद्वान लोग ( पशुम ) जानने योग्य परमात्माको हृदयमें बाँधते हैं।" __ इनके पश्चात् इनके शिष्यों ने भी इसी अर्थका अनुसरण किया। पं सातवलेकरजी लिखते हैं कि-"पुरुष ( पशुम् ) परमात्मारूपी सर्वद्रष्टाको अपने मानस यज्ञमें बाँध दिया अर्थात् अपने मनमें भ्यानसे स्थिर क्रिया ।"
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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