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________________ ( ६७५ ) आत्मा के साथ लगे रहने की शक्ति नहीं रहती तब वे कार्मारण स्कन्ध अपने आप आत्मासे अलग हो जाते हैं। जैसे सर्पके शरीर का पुराना चमड़ा (केंचुल ) उसके शरीर से उतर जाती है उसी तरह कर्म भी अपना कार्य करके आत्मा से अलग हो जाते हैं । इस तरह पहले के कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग होते रहते हैं और नये कर्म आत्मा से बँधते रहते हैं। जिस तरह कि समुद्र में हजारों नदियों का पानी प्रति समय जाता रहता है और उधर सूर्य की गर्मी से उसका बहुत सा पानी भाफ बन कर उड़ता मीराता है। जिस प्रकार कोई की कर्जदार) मनुष्य पहले का कर्जा चुकाता हैं किन्तु लाचार होकर अपने खाने पीने के लिये नया कर्जा भी ले लेता है इस कारण वह कर्जे से नहीं छूट पाता इसी प्रकार संसारी जीव पहले कमाये कर्मों का फल भोगकर ज्यों ही उनसे छूटता त्योंही अपने भले बुरे कामोंसे और नयाकर्म कमा लेता है। इसी कम की उधेड़ बुन के कारण जीव संसार में हमेशा से ( श्रादि समय से ) अनेक योनियों में जन्मता भरता चला आ रहा है । कर्मों में उलटन पलटन कमाये हुये कर्मों में उलटन पलटन भी हुआ करती है। जिस तरह खाये हुये पदार्थ का असर हम बदल सकते हैं किसी आदमी ने भूल से या जान बूक कर विष खालिया और उसके पीछे विष नाशक दवा खाली तो वह विष उस आदमी पर असर नहीं कर पावेगा या बहुत थोड़ा असर करेगा। इसी तरह किसी मनुष्य ने क्रोध में आकर किसी को मारा जिससे उसने असातावेदनीय (दुखदायक ) कर्म वा किन्तु उसके बाद उसे अपने किये पाप पर पश्चाताप हु उसने फिर परोपकार, दया, क्षमा, शांति आदिसे
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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